साझा धरोहर है ताज
दुनियाभर में अपनी कलात्मकता और स्थापत्य की विशिष्टता के कारण प्रसिद्ध ताजमहल को उत्तर प्रदेश के एक नेता द्वारा ‘भारतीय संस्कृति पर कलंक’ और इसके निर्माताओं को ‘गद्दार’ की संज्ञा देना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. मध्यकालीन भारतीय इतिहास का पता देती ऐतिहासिक इमारतों से राजनीति के एक हिस्से की असहजता कोई नयी बात नहीं है. राजनीतिक […]
दुनियाभर में अपनी कलात्मकता और स्थापत्य की विशिष्टता के कारण प्रसिद्ध ताजमहल को उत्तर प्रदेश के एक नेता द्वारा ‘भारतीय संस्कृति पर कलंक’ और इसके निर्माताओं को ‘गद्दार’ की संज्ञा देना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है.
मध्यकालीन भारतीय इतिहास का पता देती ऐतिहासिक इमारतों से राजनीति के एक हिस्से की असहजता कोई नयी बात नहीं है. राजनीतिक स्वार्थों को साधने की प्रक्रिया में इतिहास के साथ होनेवाली बर्बरता की घटनाएं विश्व के अन्य हिस्सों में भी देखी जा सकती हैं. पाकिस्तान में सूफियों की दरगाह पर धार्मिक कारणों से हमले भी इसी श्रेणी में हैं. अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बुद्ध की प्रतिमा का तोड़ना तथा सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों द्वारा स्मारकों और संग्रहालयों को नष्ट करने के हालिया उदाहरण हमारे सामने हैं.
इतिहास की घटनाओं से वर्तमान को सबक लेकर आगे की राह बेहतर करनी चाहिए, न कि उसकी मनमानी व्याख्या कर समाज को बांटने तथा धरोहरों को तबाह करने की राजनीति करनी चाहिए. अफसोस है कि भोजन, वस्त्र, कला-रूपों को भी सांप्रदायिक खांचे में बांटने की कोशिश हो रही है. इतिहास और संस्कृति की विरासतें किसी एक समुदाय या संगठन की नहीं होती हैं. पूरे देश का उन पर साझा अधिकार होता है.
बिना किसी ऐतिहासिक समझ के दुर्भावना से प्रेरित होकर ताजमहल को शिवालय या लाल किले को किसी प्राचीन राजा का महल बताने के प्रयास न सिर्फ इतिहास के साथ खिलवाड़ हैं, बल्कि यह भारत की बहुल संस्कृति और विविधता में एकता जैसी पहचानों के लिए नुकसानदेह भी है. एक बेजोड़ कला-रचना के रूप में ताजमहल भारतीय, ईरानी और अन्य कई कला-परंपराओं का समुच्चय है.
देश-विदेश से लाखों सैलानी हर साल इस नायाब शाहकार को देखने आते हैं. पर्यटन और इससे होनेवाली आय के लिहाज से भी यह अतुलनीय है. सरकार पहले ही कह चुकी है कि ताजमहल की जगह मंदिर के होने की बात निराधार है. करीब चार सदी से यमुना के किनारे दमकते ताजमहल के सौंदर्य पर सांप्रदायिक वैमनस्य की परछाईं नहीं पड़नी चाहिए.
सांस्कृतिक इतिहास के आंगन को राजनीति का अखाड़ा बनाना देश के व्यापक हित में नहीं है. जरूरत तो इस बात की है कि ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण पर ध्यान दिया जाये और अपने अतीत के विभिन्न चरणों को विश्व के सामने गौरव के साथ प्रस्तुत किया जाये. उम्मीद है कि समाज के साथ विभिन्न राजनीतिक दल भी इस बात को समझेंगे तथा स्वार्थ-सिद्धि से प्रेरित इतिहास की मनमानी व्याख्या की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश करेंगे.