आंबेडकर की प्रतीक्षा में समाज

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक किसी-न-किसी को यह हिसाब लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब अांबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बनाकर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों में कहां पहुंचा है अौर अब अाज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं अौर कितनी सिद्ध हुई लगती हैं! यह जानना या इसका अाकलन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 18, 2017 6:19 AM
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
किसी-न-किसी को यह हिसाब लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब अांबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बनाकर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों में कहां पहुंचा है अौर अब अाज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं अौर कितनी सिद्ध हुई लगती हैं! यह जानना या इसका अाकलन करना जरूरी इसलिए नहीं है कि इससे बाबासाहेब की महत्ता में कोई फर्क पड़ेगा, या इसके अाधार पर हम उन्हें विफल करार दे सकते हैं.
यहां सवाल समाज के हर उस अादमी की सार्थकता का है, जो सामाजिक न्याय व समता के दर्शन में किसी भी स्तर पर भरोसा करता है. एक स्तर पर यह इसका भी अाकलन हो सकता है कि दलित नेतृत्व के नाम पर अाजादी के बाद जो राजनीति चली अौर जिसने बाबासाहेब को अाक्रामक प्रतीक बना कर सबको धमकाने-डराने का काम किया, वह सारत: क्या साबित हुई अौर उसमें अब कितनी अौर कैसी संभावना बची है. अांबेडकर को हिंदू समाज ने जैसा जीवन दिया, अांबेडकर ने उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दिया अौर वही उसे वापस लौटाया!
गांधी अौर अांबेडकर दोनों का बोधिवृक्ष एक ही था- जातीय अपमान व घृणा! गांधी बोध को तब उपलब्ध हुए, जब वे दक्षिण अफ्रीका के मारित्सब्बर्ग स्टेशन पर एक सर्द रात में रेल के डिब्बे से सामानसहित निकाल फेंके गये थे.
अांबेडकर जन्म से ही ऐसे दारुण अनुभवों से गुजरते हुए बोध को तब उपलब्ध हुए, जब बडोदरा के उस पारसी होस्टल से उन्हें सामानसहित निकाल फेंका गया, जिसमें बडोदरा महाराजा के निर्देश पर उनके एक विशिष्ट मंत्री की हैसियत से उन्हें रखा गया था. गांधी दक्षिण अफ्रीका के उस स्टेशन से उठे, तो कटुता व विक्षोभ के तमाम बंधनों को काटते हुए एक नयी दुनिया के सर्जन में प्राणपण से जुट गये- ऐसी दुनिया, जो मूल्यों अौर व्यवहार के लिहाज से अाज की दुनिया से एकदम भिन्न होगी. अांबेडकर बडोदरा के होस्टल से उठे, तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इतनी प्रखरता से भासमान हुए कि लोगों की नजरें चौंधिया गयीं.
लेकिन एक बड़ा फर्क भी हुअा- गांधी जब अपनी दुनिया का नक्शा बनाते, तो वह बुनियादी परिवर्तन के लिए होता था. उन्हें वह दुनिया सारे इंसानों के लिए बनानी थी अौर इसलिए उन्हें ढांचे व मन दोनों स्तरों पर काम करना था. अांबेडकर के लिए सारे इंसानों का मतलब अछूत समाज से शुरू होता था अौर अाज के समाज में जहां उसकी जगह बनती थी, वहां समाप्त हो जाता था. राजनीति का मतलब यही है- जो अाज है, उसमें अपनी जगह बनाना; और जो प्राप्त है, उसमें से अपना हिस्सा लेना!
भारतीय समाज में अपने अछूत समाज के लिए जगह बनाने के धर्मयुद्ध में अांबेडकर कहां पहुंचे अौर उनका समाज कहां पहुंचा, इसका अाकलन अाज जरूरी है, क्योंकि उनके नाम पर चलायी गयी पूरी दलित राजनीति अाज अौंधे मुंह गिरी पड़ी है.
भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की अांबेडकर की कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी, क्योंकि ताउम्र अांबेडकर कभी भी पूरे दलित समाज के सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. प्रचलित राजनीति में संख्याबल का ही निर्णायक महत्व होता है. इसी गणित से हिंदू समाज की सिरमौर जाति ब्राह्मण होने के बाद भी नेहरू को चलना पड़ा, स्त्री-जाति से अायी इंदिरा गांधी को चलना पड़ा. यही गणित था जिसकी चूल बिठाने में कांशीराम की सारी उम्र गयी अौर यही समीकरण है कि जिसने मायावती से लेकर तमाम दलित नेताअों को हलकान कर रखा है. अाज सभी अपने-अपने पिटे मोहरे संभालने में लगे हैं.
क्या सत्ता का समीकरण बिठा लेने से समाज का समीकरण भी बनता अौर बदलता है?
इसका जवाब हम अांबेडकर के नाम पर चलनेवाली राजनीति में खोजें, तो पायेंगे कि समाज के सामान्य विकास का जितना परिणाम दलित समाज पर हुअा है, उसके अलग या अधिक राजनीति ने उसे कुछ भी नहीं दिया है. दलित राजनीति के नाम पर कई नेता स्थापित हुए हैं, पर उनका दलित समाज से उतना ही नाता है, जितना किसी सवर्ण नेता का उसके अपने समाज से.
सत्ता तक पहुंचने के तमाम समीकरणों का परिणाम यह हुअा है कि दलित राजनीति जोड़-तोड़ का, राजनीतिक सौदा पटाने का अखाड़ा बन गयी है अौर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बिखर गयी है. दलित समाज अौर दलित राजनीति के बीच भी उतनी बड़ी व गहरी खाई खुद गयी है, जितनी सवर्ण राजनीति व सवर्ण समाज के बीच है. जिस भूत से लड़ने का अांबेडकर का संकल्प था, वही भूत दलित राजनीति को कहीं गहरे दबोच चुका है. तब अांबेडकर की इस सोच की मर्यादा समझ में अाती है कि जैसे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, यह भ्रामक है, वैसे ही समाज परिवर्तन सत्ता की ताकत से होता है, यह भी भ्रामक है.
समाज बदलेगा, तो एक नयी राजनीति बनेगी ही, लेकिन इसी राजनीति के बंदरबांट से कोई नया समाज बनेगा, यह वह अात्मवंचना है, जिसे पहचानने में अांबेडकर विफल हुए थे अौर दलित राजनीति जिससे लहूलुहान पड़ी है. यहां से अागे का कोई रास्ता तभी बनेगा, जब गांधी-अांबेडकर का नया समीकरण हम बना सकेंगे. अाज भारतीय समाज इसी मोड़ पर खड़ा किसी नये अांबेडकर की प्रतीक्षा कर रहा है.

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