सीपीसी का 19वां राष्ट्रीय सम्मेलन
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार चीन की साम्यवादी पार्टी का 19वां राष्ट्रीय सम्मेलन बीजिंग में संपन्न होते-होते राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व पर सर्वसम्मति की एक ऐसी मुहर लगा रहा है, जो उनको माओत्सेतुंग और देंग शियाओपिंग जैसे महान पथ-प्रदर्शकों की कतार में प्रतिष्ठित कर देगी. इस प्रतिनिधि सभा में लगभग पौने तीन हजार चोटी के […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
चीन की साम्यवादी पार्टी का 19वां राष्ट्रीय सम्मेलन बीजिंग में संपन्न होते-होते राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व पर सर्वसम्मति की एक ऐसी मुहर लगा रहा है, जो उनको माओत्सेतुंग और देंग शियाओपिंग जैसे महान पथ-प्रदर्शकों की कतार में प्रतिष्ठित कर देगी. इस प्रतिनिधि सभा में लगभग पौने तीन हजार चोटी के साम्यवादी नेता भाग लेते हैं.
प्रतिनिधि सभा को चीनी व्यवस्था में सर्वोपरि समझा जाता है, इसीलिए रुख के साथ पीठ पलटने में माहिर साम्यवादी नेता यहां बहुत सोच-समझकर फैसले लेते हैं.
यह सम्मेलन पांच साल में एक बार बुलाया जाता है और कभी यह माना जाता था कि यही नेतृत्व परिवर्तन के, उत्तराधिकारी की ताजपोशी या नामजदगी के काम आता है. इस बारे में कोई संदेह नहीं कि इस बार 64 वर्षीय शी जिनपिंग अगले पांच साल के लिए चीनी साम्यवादी पार्टी के महासचिव नियुक्त कर लिये जायेंगे, चीन में यही पद सर्वशक्तिमान है.
कुछ विशेषज्ञ इस पर नजरें गड़ाये हैं कि पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति में किस-किस सदस्य को पदोन्नत किया जायेगा. अब तक परंपरा यह रही है कि पोलित ब्यूरो के सदस्यों में 1950 के पहले जन्मे किसी व्यक्ति को स्थान नहीं मिलता और स्थायी समिति में लगभग समाज के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व उनके हितों को मुखर करनेवाले श्रेष्ठि वर्ग के सदस्यों का चयन किया जाता है. अर्थात् सेना और टेक्नोक्रेट-उद्यमी और शुद्ध साम्यवादी सैद्धांतिक व्याख्याकार और संगठन के कार्यकर्ताओं का संतुलन इसमें बनाया जाता है.
इस बार पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति में 6-7 बुजुर्ग लोगों के अवकाश ग्रहण करने की संभावना है, इसीलिए इस बात को लेकर अटकलें तेज हैं कि क्रांति के बाद 7वीं पीढ़ी अब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बिराजने को तैयार है और इसी बिरादरी से पांच वर्ष बाद 2022 में नये सूरज का उदय होगा. 1990 के दशक मेें हू जिनताओ का तिलक अभिषेक देंग सियाओपिंग ने किया था और सत्ता ग्रहण करते-करते उन्हें दस वर्ष लग गये. लगभग इतना ही समय अंतराल के रूप में खुद शी को भी बिताना पड़ा है.
जब से शी ने सत्ता ग्रहण की है, उनकी कार्यशैली केंद्रीय जनतंत्र वाली नहीं, बल्कि अधिनायक वाली अधिक रही है. जब 2012 में सत्ता के सभी सूत्र एक-साथ उन्होंने अपने हाथ में लिये थे, तब उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी पसंद की टीम के साथ ही काम करेंगे.
भारतीय इतिहास के जानकारों को इसमें उस घटना की अनुगूंज सुनायी दी, जब नेहरू ने कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों को यह कहकर स्तब्ध कर दिया था कि वह अपनी पसंद और सोच के अनुकूल प्रतिनिधियों के साथ ही काम करना पसंद करेंगे, अन्यथा इस्तीफा दे देंगे. सुभाष बोस को हाशिये पर पहुंचानेवाले अभियान की शुरुआत इसी से हुई थी.
अक्सर यह कहा जाता है कि अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान है, मगर हकीकत यह है कि आज चीनी राष्ट्रपति ही दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान है. राष्ट्रपति ट्रंप इस समय जितनी मुसीबतों में फंसे हैं, उनको देखते यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता कि वह दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं.
अमेरिका भले ही दुनिया का सबसे ताकतवर देश हो, मगर जहां तक चीन का प्रश्न है, वह अमेरिका या शायद रूस की तुलना में भी कम ताकतवर हो. जहां तक शी का प्रश्न है, वह अपने देश में एकछत्र सबसे अधिक ताकतवर नेता है. उनकी तुलना अगर किसी से की जा सकती है, तो रूस के पुतिन से.
शी जिनपिंग के बारे में जो बात याद रखने लायक है, वह यह कि जहां उनके नेतृत्व में चीन की अर्थव्यवस्था निरंतर विकसित होती रही है, वहीं जनतंत्र का गला घोंटने में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली है.
जो बात याद रखने लायक है, वह यह कि जब से शी ने सत्ता ग्रहण की है, चीन में मानवाधिकारों का निरंतर उल्लंघन होता रहा है और इस दमन उत्पीड़न को संसार अनदेखा करता रहा है सिर्फ इसलिए कि चीन एक उदीयमान शक्ति है- विश्व की दूसरी सबसे बड़ी उदीयमान अर्थव्यवस्था, जिसकी अवहेलना या अनदेखी नहीं की जा सकती. चीन सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य है, जिसे निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त है और जो दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश भी है.
जहां तक चीन की अपनी छवि का प्रश्न है, उसके लिए वह संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में एक है और पूर्वी एशिया में जापान हो या कोरिया या एक सीमा तक वियतनाम वह चीनी सभ्यता और संस्कृति की ही नकलें हैं. चीन के अपने विश्व-दर्शन में चीन दुनिया का केंद्र है और उसकी सभ्यता की तुलना में बाकी सभी लोग बराबर हैं. इस सोच में कोई भी अंतर कन्फ्यूशियस के समय से आज तक नहीं आया है.
जब हम चीन की साम्यवादी पार्टी के इस अधिवेशन की चर्चा करते हैं, तो हमारे लिए इन सब बातों को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है. जहां तक भारत का प्रश्न है, हमारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह समझने की है, और गांठ बांधने की है कि भारत के लिए चीन उसके विश्व-दर्शन में एक महत्वपूर्ण घटक है, पर चीन के लिए भारत की अहमियत वैसी नहीं है.
चीन के लिए अमेरिका और रूस और उसके बाद इस्लामी दुनिया अर्थात् पेट्रोल निर्यात अरब संसार और मध्य एशिया कहीं अधिक सामरिक महत्व के हैं भारत की तुलना में. जब तक चीन ने पाकिस्तान को अपना बगलबच्चा बना रखा है और वह नेपाल, तथा श्रीलंका और शायद म्यांमार में भी भारत के लिए सरदर्द पैदा कर सकता है, तब तक उसे भारत द्वारा प्रस्तुत किसी चुनौती के बारे में परेशान होने की जरूरत नहीं.
मेरी राय में यदि भारत को आनेवाले पांच वर्षों में- अर्थात चीनी साम्यवादी पार्टी की अगली कांग्रेस तक- अपने राष्ट्रहित की चिंता सार्थक तरीके से करनी है, तो हमें दक्षिण एशिया में पाकिस्तान की प्रेतबाधा को छोड़ अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों की बेहतरी को प्राथमिकता देनी होगी.
यदि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और इंडोनेशिया हमारा साथ देते हैं, तो चीन की आक्रामक या विस्तारवादी नीतियों के बारे में आशंकित होने की हमें कोई जरूरत नहीं.