बमन की इंतजारी है
दीपावाली आ गयी, पर लोग असमंजस में हैं. हालांकि, यह नहीं कह सकते कि दीपावाली आ गयी, पर कोई उत्कंठा नहीं, जैसा कि विद्यानिवास मिश्र ने बसंत के संबंध में कहा था- ‘उत्कंठा’ कंठ को उत्ते यानी ऊपर करके व्यक्त की जानीवाली प्रतिक्रिया है, जिसे उत्सुकता भी कहते हैं. लोगों की ऊपर उठी हुई और […]
दीपावाली आ गयी, पर लोग असमंजस में हैं. हालांकि, यह नहीं कह सकते कि दीपावाली आ गयी, पर कोई उत्कंठा नहीं, जैसा कि विद्यानिवास मिश्र ने बसंत के संबंध में कहा था- ‘उत्कंठा’ कंठ को उत्ते यानी ऊपर करके व्यक्त की जानीवाली प्रतिक्रिया है, जिसे उत्सुकता भी कहते हैं.
लोगों की ऊपर उठी हुई और असमंजस में इधर-उधर ताकती गरदन से जाहिर है कि उत्कंठा तो पूरी है, पर उसे व्यक्त कैसे करें, यह समझ नहीं आ रहा. कारण, दिल्ली में पटाखों पर प्रतिबंध है और हालांकि दीपावाली का पटाखों से कोई सीधा संबंध नहीं है, वह दीपों की अवली यानी समूह है, पटाखों की नहीं. और भगवान राम के जमाने में, जिनके रावण पर विजय पाने के बाद अयोध्या लौटने के उपलक्ष्य में यह पर्व मनाया जाता है, भारत में पटाखे होते भी थे, इसमें संदेह है. फिर भी बिना पटाखों के दीपावली, दीपावली लगती नहीं.
दीपों के बिना दीपावली हो सकती है, बल्कि होती ही है, क्योंकि उनकी जगह बल्ब की देसी-विदेशी लड़ियों ने ले ली है और दीप तो अब खानापूरी के लिए जलाये जाते हैं. पर, बिना पटाखों के दीपावली सूनी-सूनी लगती है. उनके बिना ध्वनि और वायु-प्रदूषण जो नहीं हो पाता, जिसके कि हम आदी हैं.
पटाखों पर लगाये गये प्रतिबंध में सांप्रदायिकता न भी हो, जैसा कि कुछ दिव्य चक्षुधारियों को दिखायी दे रहा है, पर लोगों के स्वास्थ्य के साथ तो यह खिलवाड़ है ही. प्रदूषण उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है, जिससे वे इस बार वंचित रह जायेंगे. और जहां प्रतिबंध नहीं भी है, वहां महंगाई है, जो अपने-आप में एक बड़ा प्रतिबंध है.
निराश बच्चे बड़ों की तरफ देख रहे हैं कि वे इजाजत दे दें, तो पिछले साल के बचाये पटाखे ही छुड़ा लें. मेरे बच्चे मुझे अरसा पहले कानपुर में मनायी गयी दीपावलियों की याद दिला रहे हैं. रिजर्व बैंक की नौकरी के दौरान पांच-छह साल हम वहां रहे थे.
पड़ोस में रहनेवाले अधिकारी के पिताजी बहुत बातूनी थे और गाहे-बगाहे होली-दीवाली के किस्से सुनाते रहते थे. दीवाली तो हमारे जमाने में मनायी जाती थी, कहते हुए वे बताया करते कि उनके घर के पूरे दो कमरे बमन से भरे रहते थे. बमन से मतलब बम-पटाखों से. उन्हीं से पता चला कि दीवाली के संदर्भ में चटाई और लहसुन भी बिछाने-खाने की चीजें नहीं, बल्कि पटाखे ही होते थे.
कानपुर की यादों से फुरसत मिली, तो देखा, बच्चे गायब हो लिए थे. बच्चों को ही बमन यानी पटाखों का इंतजार नहीं रहता, बमन को भी बच्चों का इंतजार रहता है. ‘हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या’ कहनेवाले कबीर से उलट इस बार उनके यार बमन उनके पास नहीं हैं, लिहाजा हमन को बमन की खूब इंतजारी है.