दीवाली और आतिशबाजी

शिव विश्वनाथन प्रख्यात समाजशास्त्री सदियों से दीवाली को प्रकाश का त्योहार माना जाता रहा है और आज भी ऐसा ही माना जाता है. लेकिन, जैसे-जैसे हमारा समाज अपने बदलाव के रूपों से होकर गुजरता है, वह अपने त्योहारों के पारंपरिक मूल्यों पर बदलाव का लेप लगाता चलता है. दीवाली के दीयों वाली सांस्कृतिक परंपरा में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 19, 2017 6:14 AM
शिव विश्वनाथन
प्रख्यात समाजशास्त्री
सदियों से दीवाली को प्रकाश का त्योहार माना जाता रहा है और आज भी ऐसा ही माना जाता है. लेकिन, जैसे-जैसे हमारा समाज अपने बदलाव के रूपों से होकर गुजरता है, वह अपने त्योहारों के पारंपरिक मूल्यों पर बदलाव का लेप लगाता चलता है. दीवाली के दीयों वाली सांस्कृतिक परंपरा में पटाखा एक लेप मात्र है. दीवाली के दीयों में पटाखा यानी आतिशबाजी कब और कैसे शामिल हो गयी, इसका कोई ठोस प्रमाण बता पाना मुश्किल है.
इस तथ्य को इतिहासकार ही बतायें, तो बेतहतर होगा. लेकिन, इतना जरूर है कि जिस तरह से दीवाली के दीयों से प्रकाश पर्व की कल्पना को साकार किया जाता है, ठीक उसी तरह से पटाखों की शुरुआत के बाद इसे भी दीवाली में शामिल कर लिया गया, क्योंकि आतिशबाजी उल्लास का विषय है. दीवाली के दीयों काे लेकर पौराणिक कथा जो भी हो, लेकिन जलते दीयों की रौशनी खुशियां और समृद्धि का प्रतीक तो हैं ही, उसी तरह से आतिशबाजी इसमें शामिल होकर उल्लास, उमंग और जोश पैदा करती है. शायद यही वजह है कि सदियों से चला आ रहा प्रकाश का यह खूबसूरत त्योहार अब आतिशबाजियों के शोर का त्योहार बनता जा रहा है.
हमारे जीवन में दीये का प्रकाश लंबे समय तक बने रहनेवाला प्रकाश है, अंधेरे को पीछे छोड़कर उजाले के साथ आगे बढ़ते जाने का प्रकाश है वह.
लेकिन वहीं, आतिशबाजी का प्रकाश क्षणिक है, कानफोड़ू है, घातक है, और सेहत के लिए हानिकारक भी है. हमारी पुरातन परंपराओं को मानने-मनाने का कोई न कोई तर्क जरूर होता था, लेकिन आज के दौर में तर्क का जिस तरह से लोप हुआ है, उसी का नतीजा है कि आज यह कहा जा रहा है कि जब बच्चे आतिशबाजी ही नहीं करेंगे, तो फिर दीवाली किस बात की! यह ठीक सोच नहीं है. आतिशबाजी दीवाली का एक हिस्सा हो सकती है, लेकन उसके बिना दीवाली न हो, यह सोचना तर्कसंगत नहीं है. जाहिर सी बात है, यह कोई जरूरी नहीं कि पुरानी परंपराएं आज भी तर्कसंगत ही होंगी, लेकिन आज जो कुछ भी हम कर रहे हैं, कम-से-कम उसे तो अपनी वैज्ञानिक सोच से तर्कसंगत बना ही सकते हैं.
दुनिया का हर त्योहार बाजार से जुड़ा हुआ है.
कुछ मामलों में तो बाजार और त्योहार एक-दूसरे के पूरक नजर आते हैं. बिना त्योहार के बाजार बाजार नहीं लगता और बिना बाजार के त्योहार त्योहार नहीं लगता. एक दूसरे नजरिये से सोचें, तो आज के दौर में सजनेवाला हर बड़ा से बड़ा बाजार अनवरत चलनेवाला एक त्योहार ही है. इसी बाजार ने आतिशबाजियों का विज्ञापन करके उसे त्योहारों में शामिल कर दिया है. यह एक नये तरह की उपभोक्तावादी संस्कृति भी है. यह ऐसी संस्कृति है, जो बिना पैसे के अब दीवाली मनाने नहीं देगी.
दूसरी बात यह है कि समाज में हर चीज बदल रही है, बदलनी भी चाहिए. त्योहार बदल रहे हैं, परंपराएं बदल रही हैं, मान्यताएं बदल रही हैं और लोगों की सोच भी बदल रही है. बदलाव यानी नयापन. इस नयेपन का असर तो दीवाली पर भी पड़ना ही था, सो पड़ा. अब लोगों को नये तरह की दीवाली चाहिए. इस नये तरह की दीवाली के लिए नये तरह का मिथ चाहिए. नये तरह की मिथ को गढ़ने के लिए कोई नयी कहानी चाहिए. आतिशबाजी वही नयी कहानी है, जिसके बिना कुछ लोग दीवाली को दीवाली ही नहीं मानते.
पहले लोग दीवाली में पड़ोसी और परिवार के लोग एक-दूसरे से मिलते थे, दीये जलाते थे और मिठाई खिलाते-खाते थे. लेकिन, अब ऐसा नहीं है.
अब बाजार इतना हावी हो गया है कि आतिशबाजी और शोशेबाजी के बिना हम त्योहार ही नहीं मनाते. खूब पैसा खर्च करते हैं, महज कुछ लम्हे के लिए. यह एक प्रकार का दिखावा ही है. पटाखा पहले घर में या आसपास छुटाया जाता था. उसके बाद वह गली और सड़क तक पहुंचा और अब तो नुक्कड़ से होकर पूरे शहर भर में फैल गया है. जब भी कोई चीज नुक्कड़ का मामला बनती है, तो वह महज दिखावा ही होती है, सांस्कृतिक परंपरा नहीं.
पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पटाखे हानिकारक तो हैं, लेकिन कुछ एक शहर में कुछ दिनों के लिए इसकी बिक्री या इसे जलाने पर प्रतिबंध से कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है. क्योंकि पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने और प्रदूषण बढ़ने के अनेक और भी कारण हैं.
ऐसे में दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध एक ड्रामैटिक रिफॉर्म के अलावा कुछ नहीं है. लेकिन हां, अगर ऐसा देश के ज्यादातर शहरों में हो, तब कहीं जाकर पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को बिगड़ने से कुछ रोका जा सकता है और प्रदूषण को कम किया जा सकता है. इसी तरह की कोशिशें बाकी क्षेत्रों में भी की जानी चाहिए, जो पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ने और प्रदूषण बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं.

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