15.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

कलियुग में त्रेतायुग की बात

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी हाल में अयोध्या में राम की विराट प्रतिमा लगाने का ऐलान किया. उसके बाद इस साल खुद अयोध्या जाकर वहां त्रेतायुग की दीवाली मनाने का ऐलान कर इतिहास के वैज्ञानिक शोधकारों को भी चौंका दिया है. रामकथा के जितने रूप हैं, उतने ही तरह के […]

मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी हाल में अयोध्या में राम की विराट प्रतिमा लगाने का ऐलान किया. उसके बाद इस साल खुद अयोध्या जाकर वहां त्रेतायुग की दीवाली मनाने का ऐलान कर इतिहास के वैज्ञानिक शोधकारों को भी चौंका दिया है. रामकथा के जितने रूप हैं, उतने ही तरह के विवरण त्रेतायुग के भी हैं.
कौन सा सही है, इस बाबत पक्के सबूत इस समय तक उपलब्ध नहीं हैं. साल 2010 के आसपास दिल्ली विवि में इतिहास, ऑनर्स पाठ्यक्रम से हटा दिये गये रामायण विषयक एक लेख पर भी बबाल मचा था. साहित्यकार और अनुवादक डॉ रामानुजम् का यह जानामाना लेख- थ्री हंड्रेड रामायणाज, फाइव एग्जांपल्स एंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशंस- भारत के विभिन्न क्षेत्रीय समुदायों में प्रचलित रामकथा के सैकड़ों स्वरूपों पर सारगर्भित चर्चा के लिए मील का पत्थर माना जाता है.
इसके अनुसार श्रुति और स्मृति पर आधारित मौखिक परंपरा पर चलते आये हमारे विविधतामय देश में मिथकीय इतिहास इकरंगा नहीं हो सकता. हर क्षेत्रीय भाषा और समुदाय में स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं से जुड़कर वह अलग-अलग शक्लें ग्रहण कर लेता है.
दक्षिण भारत और द पूर्वी एशिया के देशों में प्रचलित रामकथा के स्वरूपों के उदाहरण देते हुए रामानुजम् ने दिखाया है कि रामकथा देश के विभिन्न जाति, लिंग और धार्मिक मान्यताओं वाले समूहों के अनुभवों और मान्यताओं से निथरती हुई लगभग तीन सौ रोचक और परस्पर विरोधी रूपों में उपलब्ध है. इनमें से किसी भी स्वरूप को कोई भी समुदाय अपनी नापसंदगी का हवाला देकर जबरन खारिज नहीं करा सकता.
राजनीतिक गुटों के द्वारा ऐतिहासिक नहीं, दलगत हितों के तहत किये जाते हस्तक्षेप के चलते आज भारतीय इतिहास के जटिल प्रसंगों की सप्रमाण व्याख्या या ज्ञानप्रद बहस का आगाज कर पाना आज बहुत ही कठिन हो चला है. हो सकता है कि तीन सौ रामकथाओं में कुछ में पात्रों के चरित्र या घटनाओं के चंद ब्योरे आम धारणा से फर्क हों.
संभव यह भी है कि वे मिथकीय रामकथा के पात्रों के बारे में न होकर किसी अन्य स्थानीय शासक के बारे में प्रचलित दंतकथाओं से जुड़े हों. बहस इससे नहीं है, पर बिना इतिहासवेत्ताओं के समुचित विमर्श के किसी तरह के जन-उत्सव को त्रेतायुगीन बनाना हमारे इतिहास में कट्टरपंथिता के हस्तक्षेप का संकेत है, जो उच्च ज्ञान के केंद्रों को इतिहास के घालमेल को मजबूर कर सकती है.
यह छिपा नहीं कि देश में हर दल में कई विभेदकारी दिमाग एक बहस विमुख मानसिकता में इस बुरी तरह से जकड़ चुके हैं कि किसी मुद्दे की अपनी तईं अप्रिय व्याख्या को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते. सारे राज समाज को केवल एक ही दर्शन से हांकने का उनका उत्कट उत्साह हमको किसी किताब या कलाकृति विशेष पर प्रतिबंध की मांग से लेकर क्षेत्रीय बनाम बाहरी के मुद्दे पर बहुमत से अलग राय देनेवालों पर हिंसक हमलों तक में दिख रहा है.
संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्ष, लिंग और जातिगत भेदभाव से परे घोषित लोकतंत्र में इस मानसिकता के खतरों की अनदेखी करना घातक होगा.
रामकथा लोक मंगलकारी है, यह एक निरापद, निर्विवाद सूत्र वाक्य है, जिससे रामराज का समर्थन या उसको चुनौती देना दोनों इन दिनों आम हैं. बालि या शंबूक की बात दूसरी है, या गर्भवती पत्नी की अग्निपरीक्षा और परित्याग राजधर्म की विवशता है कहकर अनेक दुनियादार व्याख्याकार अप्रिय सवालों से छूटते रहे हैं.
कड़वे सवालों को लेकर आंख बचा जाना और किसी क्षेत्र की रामकथा को ही मानक बताने की जिद के साथ भिन्नता का उग्र विरोध करना वैचारिक गुट विशेष की अपने इलाकाई प्रिय स्वरूप में श्रद्धा भले ही दिखाये, लेकिन इसे बौद्धिक संतुलन का प्रमाण तो नहीं माना जा सकता. कहा जाता है कि कुछेक रामकथा स्वरूपों में हनुमान या सीता सरीखे आदर्श पात्रों का उच्छृंखल और कामुक चित्रण मन-मस्तिष्क पर कुप्रभाव डाल सकता है.
पर, यह क्या अचरज की बात नहीं, कि जब दुनियाभर के छात्र इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग से तमाम तरह का गुह्यतम (सचित्र) ज्ञान बटन दबाकर हासिल करने में सक्षम हों, तब हमारे विश्वविद्यालयों में एक खास तरह का दिमाग हर कृति को आज भी इसी कसौटी पर कसना चाहे कि क्या यह ब्योरा या जीवनशैली बहू-बेटियों के, छात्रों के हाथों में थमाया जा सकता है?
यह एक अलिखित स्वीकार है कि तमाम किताबें शिशुवत बहू-बेटियों या शिष्यों के लिए ही लिखी जाती हैं या लिखी जानी चाहिए. इतिहास को इस लाठी से हांकने पर तो कुछ दूर जाकर वाल्मीकि और व्यास भी भगाये जाने लगेंगे, कालिदास और जयदेव का तो कहना ही क्या? यह हठयोग हमारे कुछेक उम्दा विश्वविद्यालयीन परिसरों को भी ज्ञान की अद्भुत बहुलता और उसकी प्रखर चुनौतियों से वंचित कर दे, तब तो हम उच्चतम शिक्षा से संपन्न युवाओं के नाम पर बस एक अपरिपक्व, बेदिमाग और अर्धसभ्य भीड़ को ही तैयार करेंगे, जिसकी बढ़ती संख्या और घटती गुणवत्ता पर हमारे तमाम अकादमिक विशेषज्ञ क्षोभ जता चुके हैं.
बहस के नाम पर यदि यह मान भी लिया जाये कि पाठ्यपुस्तकें और पुरातिहास के सरकारी विवरण यथासंभव उदात्त और मानसिक परिष्कार करनेवाले हों, तो भी यह तथ्य अटल रहता है कि मौखिक लोककथाओं और पौराणिक ब्योरों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े भारत के प्राचीन इतिहास का हर बड़ा अध्येता कभी-न-कभी विवादित ब्योरों की दलदल में पैर जरूर रखेगा.
अच्छा हो हम नागरिकों को देश के इतिहास की विविधता बताने और युवाओं को उच्च शिक्षा तथा शोध के लिए तैयार करते समय रामकथा सरीखी सभी जनकथाओं के क्षेत्रीय स्वरूपों से भी उनका परिचय कराते चलें, ताकि वे यथार्थ को विभिन्न संस्कृतियों के संदर्भ में देखना लोकतांत्रिक खुलेपन से परखना सीखें.
देशभक्ति के नाम पर ताजमहल को गरियाने या लड़कियों की उच्चशिक्षा के नाम पर कैंपस से हॉस्टल तक उन पर वर्जनाओं की लंबी सूची लागू कर देने से तो हम अपने बहुलतामय देश के हजारों साल पुराने विविधतामय ज्ञान-विज्ञान को नितांत क्षुद्र और अवैज्ञानिक बना डालेंगे.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें