गांधीजी कहा करते थे, यह विश्वास करना कि जो पहले कभी नहीं हुआ, वह फिर कभी नहीं होगा, मनुष्यता के गौरव में अविश्वास करना है. सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि तमाम सम्मानों और अधिकारों से वंचित कर समाज के हाशिये पर रखे गये किन्नर समुदाय, जिन्हें हिजड़ा के नाम से भी जाना जाता है, को अब वे सभी अधिकार दिये जायें, जो किसी अन्य नागरिक को प्राप्त हैं.
इस महत्वपूर्ण एवं स्वागतयोग्य फैसले में न्यायाधीश केएस राधाकृष्णन व एके सिकरी ने उन्हें तीसरे लैंगिक पहचान के अंतर्गत चिह्न्ति करते हुए उनके शैक्षणिक और आर्थिक विकास के लिए विशेष व्यवस्था करने तथा उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित कर आरक्षण देने का आदेश दिया है. इस निर्णय ने सामाजिक न्याय की जाति-आधारित अवधारणा की सीमा को भी नया विस्तार दिया है. आधुनिक भारत के इतिहास में किन्नरों की व्यथा की शुरुआत ब्रिटिश काल से होती है, जब 1871 के जरायमपेशा जातियों की सूची में समूचे किन्नर समुदाय को अपराधियों की श्रेणी में डाल दिया गया.
आजादी के बाद 1949 में इस कानून को रद्द तो कर दिया गया, लेकिन समाज व शासन की तरफ से उनके प्रति भेदभावपूर्ण रवैया जारी रहा. इसका परिणाम यह हुआ कि वे मुख्यधारा से कटकर जीवन बसर के लिए मजबूर हुए. नाच-गाना और वेश्यावृत्ति उनकी आजीविका के रास्ते बने. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस समुदाय को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए अदालत की शरण में जाना पड़ा और लोकतंत्र की दुहाई देनेवाली सरकारों और राजनीतिक दलों ने कुछ भी करना जरूरी नहीं समझा. स्वयंसेवी संगठनों के दबाव में पिछले साल सरकार ने किन्नर समुदाय की बेहतरी की संभावनाओं के अध्ययन के लिए एक समिति गठित की थी, जिसकी रिपोर्ट शीघ्र आने की उम्मीद है.
न्यायालय ने अपने आदेश में सरकार को इस समिति की सिफारिशों पर सकारात्मक और त्वरित कदम उठाने का निर्देश भी दिया है. सरकार द्वारा तकनीकी अवरोध की संभावना को देखते हुए न्यायाधीशों ने यह भी कह दिया कि इसके लिए कोई शल्य प्रमाण-पत्र दिखाने की जरूरत नहीं होगी. इस फैसले में जो बेहद अहम बात कही गयी है, वह यह है कि किन्नरों को लेकर समाज को संवेदनशील होने की जरूरत है.