इन किताबों पर क्या कहा जाये!
।। अवधेश कुमार।। (वरिष्ठ पत्रकार) एक सप्ताह के अंदर आयी दो पुस्तकों ने मनमोहन सरकार पर जिस तरह के प्रश्न खड़ किये हैं, उनसे कांग्रेस पार्टी व सरकार दोनों परेशान हैं. इसके प्रमाण उनकी ओर से आ रही प्रतिक्रियाएं हैं. कांग्रेस ने इसे भाजपा की साजिश कह कर पुस्तकों के तूफान से स्वयं को रक्षित […]
।। अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
एक सप्ताह के अंदर आयी दो पुस्तकों ने मनमोहन सरकार पर जिस तरह के प्रश्न खड़ किये हैं, उनसे कांग्रेस पार्टी व सरकार दोनों परेशान हैं. इसके प्रमाण उनकी ओर से आ रही प्रतिक्रियाएं हैं. कांग्रेस ने इसे भाजपा की साजिश कह कर पुस्तकों के तूफान से स्वयं को रक्षित करने की कोशिश की है, लेकिन इतने मात्र से इस तूफान का वेग कम जायेगा, ऐसा मानने का अभी कोई कारण नहीं है. यकीनन ऐन चुनाव के वक्त इन पुस्तकों को सामने लाने के इरादों पर प्रश्न खड़ा किया जा सकता है. सरकार के अंदर होने के कारण सूचनाओं तक पहुंच का लाभ उठा कर सुर्खियां पाने और व्यावसायिक हित साधने का आरोप भी लगाया जा सकता है. आखिर पुस्तक लिखनेवाले एक व्यक्ति प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे हैं और दूसरे नौकरशाह हैं, जो प्रधानमंत्री के तहत कोयला सचिव के रूप में काम कर चुके हैं.
प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और पीसी पारख की ‘क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर’ का सार पहली नजर में झकझोरनेवाला है. तथ्य देखें- सरकार का सूत्र संवैधानिक तौर पर भले मनमोहन सिंह के हाथों था, लेकिन असली शक्ति सोनिया गांधी के हाथों थी. यानी प्रधानमंत्री ऐसा कोई निर्णय करने में सक्षम नहीं थे, जिनकी हरी झंडी सोनिया गांधी की ओर से नहीं मिली हो. प्रधानमंत्री की इस दशा का मंत्रियों, नेताओं, दलालों ने लाभ उठाया और मनमाने काम किये और करवाये. प्रधानमंत्री कई मौकों पर कुछ मंत्रियों के खिलाफ कदम उठाना चाहते थे, लेकिन वे वैसा न कर सके. नीतियों के स्तर पर प्रधानमंत्री न चाहते हुए भी अपने निर्णयों को बदलने पर मजबूर हुए, जिनसे देश को क्षति हुई और भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिला. इसका सबसे खतरनाक पक्ष था कुछ ऐसी शक्तियों का प्रभावी होना, जिनकी सीमाएं देश से बाहर भी थीं. अगर वाकई यह सब हुआ, तो फिर देश को कितना नुकसान हुआ होगा?
बारू एवं पारख की पुस्तकों में हालांकि गुणात्मक भेद है. बारू के सामने अपना संस्मरण लिखने की कोई विवशता नहीं थी, जबकि पारख के खिलाफ कोयला आवंटन घोटाले में मामला चल रहा है. मुकदमा दर्ज होने के समय उन्होंने यह प्रश्न उठाया था कि यदि मैं दोषी हूं तो हमारे मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री क्यों नहीं? अपनी पुस्तक में भी उन्होंने यही स्थापित किया है कि कोयला आवंटन घोटाला प्रधानमंत्री की कमजोरियों के कारण हुआ तथा नेताओं, दलालों ने मनमाना आवंटन करवाया. यह भी आरोप लगाया है कि कोलगेट मामले में सीबीआइ जांच की सिफारिश अंत समय में पूरे मामले पर परदा डालने की नीयत से की गयी थी. इस पुस्तक में कहीं भी पारख ने अपनी या अन्य नौकरशाहों की कोई जिम्मेवारी नहीं स्वीकार की है. सिर्फ नेताओं, मंत्रियों व उनके सहयोगियों को अपने स्वार्थ के लिए देशहित की बलि चढ़ानेवाला माना है. पुस्तक विमोचन के मौके पर पारख ने कहा कि यदि प्रधानमंत्री कोयला ब्लाकों की खुली बोली जैसे सुधार के कदम उठाते, तो करोड़ों रुपयों के कोयला आवंटन घोटाले को रोका जा सकता था.
पारख की तरह बारू के संस्मरणों से भी मोटा-मोटी सहमति हो सकती है. यह जगजाहिर है कि मनमोहन सिंह एक स्वतंत्र प्रधानमंत्री नहीं थे. बारू के अनुसार उनके पास मंत्रियों के चयन तक की आजादी नहीं थी और वे सोनिया परिवार के कहने पर चलते रहे. हालांकि यह बहस का विषय है कि एक प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी या गठबंधन से नियंत्रण-विहीन होना चाहिए या नहीं? पर यहां मामला अलग है. स्वयं प्रधानमंत्री का संगठन को विश्वास में लेकर निर्णय करना और इसके लिए विवश रहना दोनों में अंतर है. बारू के तथ्यों में अतिशयोक्तियां भी हैं. उनका स्थान प्रधानमंत्री कार्यालय में काफी नीचे था. सारी फाइलों या निर्णयों तक उनकी पहुंच नहीं थी. इसमें कई जगह सूत्रों के वक्तव्य को सीधा वक्तव्य बता कर भी पेश किया गया है, जिसका सत्यापन नहीं हो सकता है. बावजूद इसके किताब के कई तथ्य चौंकाते हैं. बारू को कोलोराडो से एक अनाम फोन आया कि अमर सिंह अमेरिका में हैं एवं प्रधानमंत्री उनसे बात करें, वे सहयोग करना चाहते हैं. उसके बाद सरकार को सपा का साथ मिला. मिस्र में 2009 में हुई पाकिस्तान के साथ शिखर-वार्ता को भी बारू ने संदेह के दायरे में रखा है. उनके अनुसार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने की संभावना से भयभीत होकर मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ बातचीत को तेजी से आगे बढ़ाया, जिसमें बलूचिस्तान मामला आ गया, जिसकी काफी आलोचना हुई.
निस्संदेह, ये सारे मत लेखकों के हैं. लेकिन इससे मनमोहन सिंह कठघरे में तो खड़ा होते ही हैं. कुर्सी बचाने के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत की तेजी के आरोप हों या कोई और आरोप, देश हर हाल में चाहेगा कि इन पर प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस नेतृत्व तथ्यवार सफाई दे.