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दावं पर क्यों हैं मुसलिम मतदाता!

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।। (वरिष्ठ पत्रकार) सन् 1952 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को जब नेहरू ने रामपुर से चुनाव लड़ने को कहा, तो उन्होंने नेहरू से कहा था कि उन्हें मुसलिम बहुल रामपुर से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. क्योंकि वह हिंदुस्तान के पक्ष में है और रामपुर से चुनाव लड़ने पर लोग यही समङोंगे […]

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

सन् 1952 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को जब नेहरू ने रामपुर से चुनाव लड़ने को कहा, तो उन्होंने नेहरू से कहा था कि उन्हें मुसलिम बहुल रामपुर से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. क्योंकि वह हिंदुस्तान के पक्ष में है और रामपुर से चुनाव लड़ने पर लोग यही समङोंगे कि वह हिंदुस्तान में पाकिस्तान नहीं जानेवाले मुसलमानों के नुमाइंदे भर हैं. लेकिन नेहरू माने नहीं. आजादी के बाद का वह पहला चुनाव था और उस वक्त कुल 17 करोड़ वोटर देश में थे. संयोग देखिये कि 2014 के चुनाव के वक्त देश में लगभग 17 करोड़ मुसलिम वोटर हैं. 1952 में देश के मुसलमानों को साबित करना था कि वे नेहरू के साथ हैं, और 2014 में पहली बार खुले तौर पर मुसलिम धर्म गुरु यह कहने में हिचक नहीं रहे कि नरेंद्र मोदी से उन्हें डर लगता है या फिर मोदी पीएम बने तो फिरकापरस्त ताकतें हावी हो जायेंगी. तो क्या आजादी के बाद पहली बार देश का मुसलिम समाज खौफजदा है? या फिर पहली बार भारतीय समाज में इतनी मोटी लकीर मोदी के नाम पर खिंची जा चुकी है, जहां चुनाव लोकतंत्र से इतर सत्ता का ऐसा प्रतीक बन चुका है, जिसमें जीतना पीएम की कुर्सी को है और हारना देश को है. देश में मोदी को लेकर मुसलिम समाज में एकजुटता यदि जातीय समीकरण को तोड़ हिंदु वोटरों का ध्रुवीकरण कर रहा है, तो 2014 के चुनाव का नतीजा कुछ भी हो देश का रास्ता तो लोकतंत्र से इतर जाता हुआ लगता है.

यहां बड़ा सवाल भाजपा का भी है, जिसकी राजनीतिक सक्रियता संघ परिवार के आगे ठहर गयी है. क्योंकि पहली बार भाजपा के कार्यकर्ताओं को नहीं, बल्कि आरएसएस के कार्यकर्ताओं को बूथ जीतो टारगेट दिया गया है. हर राज्य में प्रांत प्रचारकों के पास एक ऑफ लाइन टैब है, जिसमें उनके राज्य के हर संसदीय क्षेत्र का ब्योरा है. हर कार्यकर्ता पर 200 घरों की जिम्मेवारी है. वोटरों को बूथों तक लाने का जिम्मा भी स्वंयसेवकों पर है. तो क्या पहली बार भारतीय राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल रहा है या फिर 2104 का चुनाव देश की तसवीर संसद के अंदर-बाहर पूरी तरह बदल देगा? क्योंकि मोदी जिस उड़ान पर हैं, संघ परिवार की जो सक्रियता है, मुसलिम समाज के नुमाइंदों के जो तेवर हैं, उसमें क्या इससे पहले जो राजनीतिक गोलबंदी हिंदुत्व या मंडल कमीशन के जरिये हुई है, वह टूट जायेगी? दलितों को लेकर जो नया ताकतवर वोट बैंक बना, वह खत्म हो जायेगा?

भारत में उदारवादी अर्थव्यवस्था ने मध्यम वर्ग को विस्तार दिया और शहरीकरण ने गवर्नेस से लेकर कल्याणकारी योजनाएं और भ्रष्टाचार से लेकर विकास की अवधारणा को ही राजनीतिक मंत्र में मुद्दे की तर्ज पर बदल दिया. पहली बार इन्हीं दो दायरे ने देश के भीतर एक ऐसे वोटबैंक को ताकतवर बना दिया, जहां पारपरिक वोट बैंक ही नहीं, बल्कि वोट बैंक से जुड़े मुद्दे हाशिये पर जाते हुए दिखायी देने लगे. इसी माहौल को मोदी अपना राजनीतिक हथियार बनाये हुए हैं. विकास के जिस खाके को मोदी गुजरात मॉडल के जरिये समूचे देश में अपने मिशन 272 के तहत रख रहे हैं, वह स्वयं में नायाब है. बीते ढाई दशक में सभी चुनावी समीकरणों को देखें, तो विकास का खाका बिजली-पानी-सड़क से आगे निकला नहीं है. कॉरपोरेट की सीधी पहल राजनीतिक तौर पर इससे पहले कभी नहीं हुई है. क्रोनी कैपटलिज्म यानी सरकार या मंत्रियो के साथ औद्योगिक घरानों का जुड़ाव इससे पहले कभी नहीं उभरा. लेकिन मोदी ने जिस तरह से बीजेपी की राजनीति को बदलने का प्रयास किया है, उससे यह सवाल वाकई बड़ा हो चला है कि 2014 के चुनाव के बाद की राजनीति कैसी होगी. क्योंकि मायावती जिस दलित विस्तार के आसरे सत्ता तक पहुंचती रही हैं, वह यदि मोदी की वजह से टूट रहा है, तो यह अपने आप में 21वीं सदी का एक बड़ा परिवर्तन होगा.

नयी परिस्थिति में रामदास आठवले हों या रामविलास पासवान या उदित राज. तीनों ही आंबेडकर की थ्योरी छोड़ संघ परिवार की उस व्यवस्था के साये तले आ खड़े हुए, जहां मोदी के विकास की पोटली आंबेडकर के 1956 के धर्मपरिवर्तन से आगे मानी जा रही है. यह गोविंदाचार्य के सोशल इंजिनियरिंग से भी आगे की सोशल इंजिनियरिंग है. क्योंकि गोविंदाचार्य ने सोशल इंजिनियरिंग के जरिये मुद्दों को पूरा करना सिखाया. लेकिन मोदी के दौर में बीजेपी की सोशल इंजिनियरिंग सत्ता पाकर हर मुद्दे को अपने अनुकूल परिभाषित करते हुए पूरा करने की सोच है. तो क्या दलित के बाद मंडल आयोग की सिफारिशों से निकले क्षत्रपों की सत्ता भी 2014 के चुनाव में ध्वस्त हो जायेगी? दलित वोटबैंक की ताकत के बाद यादव और कुर्मी ऐसा वोटबैंक है, जो एकमुश्त एक साथ खड़ा रहता है.

अगर चुनावी हवा का रुख ऐसा है, तो इसके मायने मनमोहन सिंह सरकार से जोड़ने ही होंगे, क्योंकि बीते दस बरस का सच यह भी है कि पूंजी ने समाज को बाजार से जोड़ कर जो विस्तार दिया, उसमें जीने के पुराने तरीके न सिर्फ बदले, बल्कि 14 करोड़ वोटरों का एक ऐसा तबका भी खड़ा हुआ, जिसके लिए नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था से लेकर लोहिया का समाजवाद मायने नहीं रखता. जो जेपी या वीपी के आंदोलन से भी वाकिफ नहीं है. जिसके लिए अयोध्या या मंडल मायने नहीं रखता. खेती या अर्थव्यवस्था पर बहस भी मायने नहीं रखती. उसे बाजार का उपभोक्ता बनना भी मंजूर है और सामाजिक ताने-बाने को तोड़ कर स्वच्छता पाना भी मंजूर है.

मनमोहन सिंह के दौर ने इस सोच को विस्तार दिया है, यानी 20 से 30 करोड़ के उस भारत के हाथ में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को सौंपा जा चुका है, जो बाकी देश को साथ लेकर चलने या जिंदगी बांट कर चलने को तैयार नहीं है. वोटरों की फेहरिस्त में किस तबके के भरोसे सत्ता तक कितनी कम तादाद में भी पहुंचा जा सकता है, इसका गणित भी पहली बार उसी लोकतंत्र पर हावी हो चला है, जो यह मान कर चल रहा था कि संसद में हर तबके की नुमाइंदगी इसी से हो सकती है कि हर वर्ग, तबके, समुदाय का अपना प्रतिनिधि हो. 2009 में महज साढ़े ग्यारह करोड़ वोट लेकर कांग्रेस सत्ता में पहुंची और 2014 में इतने ही नये वोटर बढ़ चुके हैं. यानी पुराने भारत को ताक पर रख नये भारत को बनाने का सपना मौजूदा चुनाव का प्रतीक बन चुका है, क्योंकि सवा सौ करोड़ का देश बराबरी की मांग करते हुए नहीं चल सकता. यह नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह की असफलता का कच्चा-चिट्ठा है. आज मुसलिम तबका दावं पर है, कल कोई दूसरा होगा. यही 2014 के चुनाव का नया मिजाज है.

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