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सिंदूर और औरतें

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार पिछले दिनों छठ के अवसर पर औरतों के सिंदूर लगाने पर बहस हो रही थी. कई महिलाएं कह रही थीं कि सिंदूर लगाना यानी पति से दबना और शादी के जो भी प्रतीक हैं, जैसे सिंदूर, बिंदी, बिछिया, मंगलसूत्र उन्हें नहीं पहनना चाहिए. पता नहीं कैसे देश में औरतों का एक […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
पिछले दिनों छठ के अवसर पर औरतों के सिंदूर लगाने पर बहस हो रही थी. कई महिलाएं कह रही थीं कि सिंदूर लगाना यानी पति से दबना और शादी के जो भी प्रतीक हैं, जैसे सिंदूर, बिंदी, बिछिया, मंगलसूत्र उन्हें नहीं पहनना चाहिए.
पता नहीं कैसे देश में औरतों का एक वर्ग ऐसा है, जो बाकी की औरतों को अपने से नीचा, मूर्ख, बेआवाज समझता है और मौका मिलते ही ज्ञान और सलाह बांटता रहता है. किताबी ज्ञान का आतंक इतना ज्यादा है कि सारे अनुभवजन्य ज्ञान को कूड़े का ढेर समझकर एक ओर सरकाता रहता है. तथाकथित बुद्धिजीवी कहलानेवाली कुछ महिलाओं में यह श्रेष्ठता का कीड़ा कुछ अधिक कुलबुलाता है.
इन दिनों कुछ साधन-संपन्न औरतें इस बात पर फूलकर कुप्पा हुई जा रही हैं कि वे क्या पहनें, कैसे रहें, कैसी दिखें, कब शादी करें, किससे करें, कैसे करें, न करें, अकेली रहें. यह उनकी च्वाॅइस और रुचि का मामला है. किसी और को उनके जीवन की आचार-संहिता बताने का कोई हक नहीं, तो जरा बतायें कि वे दूसरों को सीख देनेवाली कौन होती हैं. जो औरतें सिंदूर लगाती हैं, मेंहदी-महावर, काजल लगाती हैं, यह उनकी भी रुचि का मामला है.
गरीब, निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग की औरतों की मालकिन बनने का ठेका अमीर और नवधनाढ्य औरतों ने कब से ले लिया? यदि आप सजने, संवरने और अपने रहन-सहन की मालकिन खुद हैं, तो ये औरतें भी अपनी पसंद की मालकिन हो सकती हैं, होनी ही चाहिए.
किसी को क्या अधिकार कि वह अपना तथाकथित बदलेखोर कोड़ा इन पर बरसाये, और खुद को इनसे अधिक अक्लमंद समझने की कोशिश करे.
मेंहदी, सिंदूर, महावर सब पुराने जमाने के शृंगार के साधन हैं. हां इनके लिए किसी ब्यूटी पार्लर में जाने की जरूरत नहीं पड़ती. जो आधुनिक औरतें ज्ञान बांट रही हैं, वे महीने में कितने घंटे पार्लर में बिताती हैं, जरा बतायें. बुढ़ापे से डरकर बालों को क्यों रंग रही हैं, इस बात पर भी व्याख्यान दें.
कई साल पहले एक आइआरएस अफसर मुसलमान लड़की के बारे में पढ़ा था. जब वह इंटरव्यू बोर्ड के सामने गयी, तो उससे पूछा गया कि उसने अपना सिर क्यों ढक रखा है.
तब उसने पूछा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पगड़ी क्यों पहनते हैं. यानी कि कोई क्या करे, क्या पहने, यह उसकी इच्छा और पसंद का मामला है. इसमें दूसरा कोई क्यों बोले.
सिंदूर लगानेभर से अगर पति की दादागीरी का भान होता है, तो कायदे से विवाह की भी भला क्या जरूरत. न पति होगा, न उसकी दादागीरी होगी, न ही उससे निजात पाने की इच्छा होगी.
हो सकता है तब यह दुनिया औरतों के लिए औरतों के द्वारा संचालित हो सके. लेकिन, क्या इससे दुनिया संभव है? या अगर सिर्फ आदमियों से चलती, तो औरतें क्यों होतीं? अगर यहां सिर्फ आदमी ही हों, या सिर्फ औरतें ही हों, तो यह दुनिया कितनी बेकार होगी. क्या ऐसी दुनिया चाहिए?

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