क्रांति के विचार में जरूरी क्रांति
प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया कोई भी व्यक्ति बगैर झूठा बने एक श्रद्धांजलि का लेखन कैसे कर सकता है? बीते सात नवंबर को रूसी क्रांति की शताब्दी मनाते हुए इस प्रश्न ने मुझे परेशान-सा कर दिया. कठिनाई यह नहीं है कि इस क्रांति का पुत्र यानी सोवियत संघ 70 वर्षों का होकर मृत […]
प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
कोई भी व्यक्ति बगैर झूठा बने एक श्रद्धांजलि का लेखन कैसे कर सकता है? बीते सात नवंबर को रूसी क्रांति की शताब्दी मनाते हुए इस प्रश्न ने मुझे परेशान-सा कर दिया. कठिनाई यह नहीं है कि इस क्रांति का पुत्र यानी सोवियत संघ 70 वर्षों का होकर मृत हो गया. कोई भी अमर नहीं होता. समस्या यह भी नहीं कि समाजवादी प्रयोग अंततः विफल रहा. सफलता से सभी चीजों की माप नहीं होती. वास्तविक समस्या तो क्रांति और क्रांति के पश्चात स्थापित राज्य के उस जीवन-काल का वह विद्रूप सत्य है, जब उन्हें सफल माना जा रहा था.
हम उस क्रांति का जश्न कैसे मनाएं, जिसने एक भस्मासुर पैदा कर दिया? क्रांति के दौरान 1917 से लेकर 1921 तक की उसकी घटनाएं जानने के बाद भी हम उसके नायकों, यहां तक कि लेनिन, को कैसे आदर्श मान लें? सोवियत राज्य के अंतर्गत कामगारों को हाशिये पर डालने और किसानों के कत्लेआम का बोध होने के बाद भी हम कैसे इसे कामगारों और किसानों की जीत मान लें?
सोल्जेनित्सिन को पढ़ने के पश्चात किस तरह हम क्रांति के इस दावे को गंभीरता से ग्रहण करें कि उसने एक वैकल्पिक लोकतंत्र का मॉडल पेश किया? सोवियत संघ के पूर्वी यूरोपीय उपनिवेशों के भ्रमण के बाद भी कैसे हम उसके उपनिवेशवाद-विरोध के जयकारे लगाएं? उसकी नकारा नौकरशाही तथा विकास के पाश्चात्य मॉडल की भोंडी नकल के दीदार के बाद भी हम उसके आर्थिक मॉडल से प्रेरित होना कैसे कबूल करें?
इसलिए, मैं तो सोवियत साम्यवादी व्यवस्था का जश्न नहीं मना सकता. इसी तरह, मैं 1917 की रूसी क्रांति की घटना को एक बेशर्त श्रद्धांजलि देना भी कठिन पाता हूं. फिर भी, उसमें एक ऐसी चीज है, जिसका जश्न तो मनाया ही जाना चाहिए, और वह स्वयं क्रांति का विचार है.
उसके घटनाक्रम चाहे जैसे भी रहे हों, रूसी क्रांति ने एक विचार की विजय दर्ज की- यह विचार कि मानव एक अघटित रीति से अपनी तकदीर खुद ही तराश सकता है. रूसी क्रांति का शताब्दी समारोह एक ऐसा सुअवसर तो होना ही चाहिए कि इस भावना का जश्न मनाया जाये और 20वीं सदी के इतिहास के आलोक में क्रांति के विचार को फिर से एक नया कलेवर दिया जाये.
पहली बार 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान प्रयुक्त होने के बाद क्रांति की अवधारणा ने स्वयं ही चार विभिन्न विचार समेट रखे थे. वे यह कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था हमेशा बनी रहनेवाली नहीं होती. इसे मौलिक ढंग से परिवर्तित किया जा सकता है, और वैसा किया ही जाना चाहिए.
यह परिवर्तन एक झटके में हो सकता है और उसके वैसे ही घटित होने की संभावना भी होती है. मगर ऐसा नाटकीय परिवर्तन स्वयमेव नहीं होगा. इसके लिए जनता को एकजुट कर उसकी सामूहिक कार्रवाई- जो प्रायः हिंसक होगी- द्वारा राजसत्ता पर अधिकार आवश्यक था. और अंतिम विचार यह कि किसी क्रांति के लिए एक हरावल दस्ते, सर्वहारा वर्ग, की जरूरत होगी, जिसकी नुमाइंदगी कोई क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी करती हो.
यूरोप की 18वीं सदी से प्रेरित तथा 19वीं सदी से विकसित हुई क्रांति की यह समझ रूसी क्रांति में साकार हुई. 20वीं सदी के दौरान रूस, क्यूबा, वियतनाम तथा कंबोडिया में संपन्न विभिन्न क्रांतियों के वास्तविक अनुभवों ने हमें फ्रांसीसी क्रांति के विचार के संबंध में कुछ सबक सिखाये.
पहला, क्रांतिकारी रूपांतरण का गंतव्य एकआयामी परिवर्तन नहीं हो सकता. मार्क्सवादी सिद्धांत ने क्रांतिकारी रूपांतरण के लक्ष्य को मुख्यतः आर्थिक आयाम में ही सोच रखा था. 20वीं सदी ने इस आदर्श को व्यापक कर इसमें राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन भी शामिल कर दिये. जयप्रकाश नारायण ने मानवीय जीवन के सभी आयामों में ‘संपूर्ण क्रांति’ की अवधारणा रखी.दूसरा, क्रांति के विचार को एक झटके की नाटकीय अवधारणा से विलग किये जाने की जरूरत भी है.
मौलिक परिवर्तनों का एक झटके में संपन्न होना न तो जरूरी है, न ही वांछनीय. कोई भी टिकाऊ परिवर्तन क्रमिक ही हुआ करता है. तीसरा, क्रांति के हिंसक होने की आवश्यकता भी नहीं है. निहित स्वार्थों द्वारा प्रतिरोध की वजह से क्रांति सहज ही संपन्न नहीं होती. पर, यदि यह हिंसक हो गयी, तो इसके उन्हीं के विरुद्ध हो जाने की संभावना होती है, जिनके नाम पर वह शुरू हुई थी. चौथा, किसी क्रांतिकारी ‘हरावल दस्ते’ का विचार भी त्याज्य है. कोई भी एक वर्ग इतिहास का चुनिंदा अभिकर्ता नहीं होता. और जब एक पार्टी क्रांति की संरक्षक बन जाती है, तब तो यह एक विनाशकारी संयोग बन जाता है.
अंततः, 20वीं सदी के उत्तरार्ध ने यह मान्यता उलट दी कि यूरोप ही मुख्य क्रांतिकारी रंगमंच हो सकता है. विश्वयुद्ध के बाद के यूरोप ने किसी क्रांतिकारी मंच के रूप में अपनी संभावना लगभग समाप्त कर डाली. अब एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे पृथ्वी के बाकी हिस्सों पर गौर करने की बारी थी.
मगर इन संशोधनों के बावजूद, क्रांति का केंद्रीय विचार अब भी कायम है, जो यह है कि एक दूसरी दुनिया का सृजन संभव है और हम इसे कर सकते हैं. यह केंद्रीय विचार ही 21वीं सदी को रूसी क्रांति की विरासत है. मैं समझता हूं कि वर्तमान सदी इस विचार को तीन दिशाओं में ले जा सकती है. पहली, हमें क्रांति के किसी पूर्वनिर्धारित गंतव्य का विचार छोड़ना होगा. क्रांति को एक प्रक्रिया के रूप में ही लिया जाना चाहिए, जो आगे बढ़ती हुई अपने गंतव्य की खोज और उसका विकास स्वयं ही किया करती है.
दूसरी, अब तक क्रांति का विचार राजनीति पर अत्यधिक निर्भर रहा है. इसने एक राजनीतिक दल तथा आधुनिक राज्य को क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक बना दिया. जरूरत इस बात की है कि हम परिवर्तनों के अन्य वाहकों की पहचान करते हुए खुद राजनीति की समझ भी व्यापक करें. और अंतिम, क्रांति की यूरोपीय अवधारणा निरपेक्ष बाह्य परिवर्तन पर केंद्रित रही है. हमें मनुष्य तथा उसके अभ्यंतर को भी क्रांति स्थल के रूप में बराबरी की मान्यता प्रदान करनी होगी.
ये समस्त प्रस्ताव अत्यंत मूलभूत प्रकृति के प्रतीत हो सकते हैं, पर क्रांति भी तो कुछ ऐसी ही होती है. क्रांति की अवधारणा में एक क्रांति ही रूसी क्रांति के प्रति हमारी सर्वोत्तम श्रद्धांजलि होगी.
(अनुवाद: विजय नंदन)