हवाई बातों से परे जाने का समय
मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली में अपनी पीठ थपथपाने का मौसम है. नोटबंदी पर, विदेशी मुद्रा भंडार की बढ़त पर, बैंकिंग व्यवस्था पर, आतंकवाद निरोध पर, किसानी कर्जामाफी पर. देश के कई राज्यों में दुर्भिक्ष, बेरोजगारी और राजधानी में विषैली गैसों से दमघोंट बने वातावरण के बावजूद. हर रोज तस्वीरें आती हैं कि किस तरह […]
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली में अपनी पीठ थपथपाने का मौसम है. नोटबंदी पर, विदेशी मुद्रा भंडार की बढ़त पर, बैंकिंग व्यवस्था पर, आतंकवाद निरोध पर, किसानी कर्जामाफी पर. देश के कई राज्यों में दुर्भिक्ष, बेरोजगारी और राजधानी में विषैली गैसों से दमघोंट बने वातावरण के बावजूद.
हर रोज तस्वीरें आती हैं कि किस तरह अमुक दिवस समारोह में लकदक पोशाकों में लाखों के फूलों से सजे बड़े-बड़े वातानुकूलित कक्षों में मेवे टूंगे गये और अतिथियों ने मेजें थपथपा कर नेतृत्व का मान बढ़ाया. आज लगभग सारा भारत उनकी जेब में है, फिर भी शासकों के चिरपरिचित तमाशे को मतदाता अब उबासियां लेते हुए देखते हैं.
तीन साल पहले हर मोर्चे पर कांग्रेस से अपनी भिन्नता की घोषणा करती रही मौजूदा सरकार सत्तारूढ़ कांग्रेस की ही तरह एक चुस्त चुनाव लड़ने की मशीन निकली. उसकी अध्यक्षता में भी अब प्रस्ताव वैसे ही रखे जाते और पारित होते हैं, जैसे सत्यनारायण कथा समारोहों में कथावाचन होता है.
संसद में गये सत्र में जैसी बहसें हुईं और अब गुजरात या हिमाचल में जैसे भाषण हुए हैं, उनको देख-सुनकर लगता है कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के मुद्दे पर विश्व बैंक की रेटिंग में बेहतरी के बावजूद तीन-चौथाई धंधों पर नोटबंदी और फिर जीएसटी की मार ने बाजार का जो मलीदा कर डाला है, उसे देखकर कहावत याद आती है, कि घर में नहीं दाने, अम्मा चलीं भुनाने!
अम्मा की असल चिंता समझिये. यूएन की एक ताजा रपट देश में पर्यावरण बिगड़ने और निरंतर कुपोषण से कुंठित होती बच्चों की बढ़वार और युवा माताओं में भारी रक्ताल्पता के गंभीर खतरों के प्रति हमको चेता रही है. भारत को दुनिया में बालमृत्यु की दृष्टि से सबसे अधिक दर वाला देश माना जाता रहा है. कुछ तरक्की हुई है, पर वह नाकाफी है.
2010 में जहां 1000 नवजातों में से 33 मर जाते थे, आज 28 मरते हैं. ऐसे कछुआ विकास की पीठ पर सवार देश में नवजातों को विकसित विश्व के बच्चों वाली सामान्य आयुष्य दर तक ले जाने में करीब चौथाई सदी लगेगी. क्या हम इतना इंतजार झेल सकते हैं? पड़ोसी श्रीलंका अपने बच्चों की आयुष्य दर में टिकाऊ सुधार ले आया है.
खुद भारत में भी महिला शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के पैमानों पर उत्तरी राज्यों से कहीं आगे निकलकर केरल और तमिलनाडु ने जननी सुरक्षा और बाल स्वास्थ्य पर अच्छा काम किया है. आज इन राज्यों में बालमृत्यु दर 1000 में कुल 6 के सराहनीय आंकड़े पर खड़ी है. तनिक तवज्जो से नवजातों की सुरक्षा और सामान्य बढ़त किस तरह बढ़ सकती है, सुधी पाठकों को यह बताना जरूरी नहीं. और ऐसा भी नहीं कि इस दिशा में सही निर्देशों या तकनीकी मदद की कमी हो.
दशा बदलने के लिए पहली जरूरत है स्थिति की वैज्ञानिक जानकारी जुटाना. भारत में अभी तक कुल 20-25 फीसदी मामलों में ही गर्भवती माताओं तथा प्रसव की बाबत व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध है.
विख्यात चिकित्सा केंद्र जांस हॉपकिंस ने विकासशील देशों में जच्चा-बच्चा की सुरक्षा के लिए सात मानक तय किये हैं, जिनका सही प्रशिक्षण हर नर्स व डाॅक्टर को मिल जाये, तो दशा तुरंत संभलने लगेगी. मसलन, हर जचगी से पहले गर्भस्थ शिशु की नियमित जांच, ताकि शिशु किसी खतरनाक स्थिति में हो, तो प्रसव में संभावित दिक्कत का पूर्वानुमान हो सके. हर राज्य में जन्म केंद्रों में हर जचगी का डाटा ठीक से जमा होना चाहिए, ताकि उसकी मदद से संपूर्ण राज्य में मां-बच्चों की समग्र और वैज्ञानिक निगरानी के साक्ष्य मिलते रहें.
केरल और तमिलनाडु के उदाहरणों का विवेचन यह दिखाता है कि हमारे यहां चूंकि पहले प्रसव के समय अधिकतर माताएं कुपोषित और कम उम्र होती हैं, और उनकी जचगी अधिक पेचीदा होती है.
इसलिए जरूरी है कि ग्रामीण प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों (जहां अधिकतर गर्भवती महिलाएं जाती हैं) और पास के शहरी हस्पतालों के बीच इन राज्यों की तरह नियमित और चुस्त रेफरल व्यवस्था बनायी जाये, ताकि जचगी में जरा भी खतरे की संभावना पर समय रहते मां को हस्पताली परिसर ले जाया जा सके. हमारे हस्पतालों के आइसीयू में जरूरी जीवन रक्षक उपकरणों की कमी, डाॅक्टरी अनदेखी से बाहर परिसर में ही जनम लेकर दम तोड़नेवाले बच्चों की बाबत कई रपटों को देखते हुए उनमें बाल चिकित्सा विशेषज्ञ, प्रजनन और एनेस्थीसिया विशेषज्ञ की समवेत मौजूदगी की गारंटी हो. नर्सों की समुचित तादाद भी जरूरी है, क्योंकि नाजुक हालत में जन्मे नवजातों को शुरू में प्रशिक्षित नर्सों की चौबीस घंटे चुस्त निगरानी की दरकार होती है.
वेदव्यास से लेकर चैतन्य महाप्रभु तक सारे संत कह गये हैं कि मनुष्य का सत्य सारे सत्यों से बड़ा होता है. इसलिए नोटबंदी की वर्षगांठ पर गदगद होकर इ-मनी और इ-बैंकिंग पर कसीदे पढ़नेवालों को याद रखना चाहिए कि अंतत: हर सरकारी कदम का अंतिम लक्ष्य और कसौटी मानव-हित से जुड़ा उनका काम ही साबित होगा. क्या इंटरनेट व स्मार्ट फोन के इस्तेमाल का कुल महत्व सरकारी जीडीपी तालिकाओं, खजाने और निजी बैंकों में सिर्फ पैसे की आवक बढ़ाने, सरकारी जीडीपी तालिकाओं, खजाने और निजी बैंकों में सिर्फ पैसे की आवक बढ़ाने में ही है? क्या उन पर प्रेषित, संकलित और सर्वसुलभ जानकारियों का जनता के जीवनरक्षण में रोल अब सबसे पहले तय और सुनिश्चित नहीं किया जाना चाहिए?