प्रत्याशियों को मिले वित्तीय मदद
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री संसद के सामान्य चुनाव क्षेत्र में 10 लाख वोट पड़ते हैं. इसमें विजयी प्रत्याशी को लगभग 3 लाख मिलते हैं. अत: यदि उसे प्रत्येक मत के लिए 20 रुपये की मदद दे दी जाये, तो 60 लाख की रकम पाकर वह जीत सकता है. प्रसिद्घ मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के […]
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
अर्थशास्त्री
संसद के सामान्य चुनाव क्षेत्र में 10 लाख वोट पड़ते हैं. इसमें विजयी प्रत्याशी को लगभग 3 लाख मिलते हैं. अत: यदि उसे प्रत्येक मत के लिए 20 रुपये की मदद दे दी जाये, तो 60 लाख की रकम पाकर वह जीत सकता है. प्रसिद्घ मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के भतीजे एडवर्ड बर्नेज को आम नागरिक की सोच को विशेष दिशा में मोड़ने में महारत हासिल थी. बर्नेज का मानना था कि शिक्षा से समझ नहीं बनती है.
वे लिखते हैं: ‘शिक्षा ने मनुष्य को रबड़ मोहर प्रदान की है. इन मोहरों का आकार संपादकीय, वैज्ञानिक पर्चे तथा विज्ञापनों से तय होता है. हर व्यक्ति की मोहर दूसरों की मोहर के समान होती है. करोड़ों लोगों को एक प्रकार की सूचना ही परोसी जाती है, जिससे उनकी बुद्घि एक तरह से ही दौड़ने लगती है.’ आशय है कि विज्ञापन, न्यूज चैनल तथा टीवी प्रोग्राम में पैठ बना कर जनता को विशेष दिशा में मोड़ा जा सकता है. हिटलर के सेनापति गोएबल्स ने इसी सिद्घांत के जरिये जर्मन नागरिकों को यहूदियों को मृत्युदंड देने के पक्ष में खड़ा कर दिया था. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रोपागेंडा का कितना गहरा प्रभाव हो सकता है.
वर्तमान चुनावों में यही फामरूला काम कर रहा है. न्यूज चैनलों, होर्डिग तथा प्रिंट मीडिया को विज्ञापन देकर जनता को पार्टियां अपने पक्ष में मोड़ लेती हैं. सच्चे एवं सामान्य आमदनी वाले प्रत्याशी पीछे रह जाते हैं. चुनाव इतने महंगे हो गये हैं कि साधारण व्यक्ति लड़ने का साहस नहीं करता है. अत: ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है कि सच्चे समाजसेवी चुनाव मैदान में उतर सकें. इस दिशा में कई देशों द्वारा प्रत्याशियों को सरकारी रकम उपलब्ध करायी जा रही है. ऑस्ट्रेलिया में 1984 से व्यवस्था है कि पार्टियों और प्रत्याशियों को चुनाव में खर्च की गयी रकम की भरपायी की जाती है. शर्त रहती है कि उनके पक्ष में कम-से-कम 4 प्रतिशत वोट डाले गये हों.
सच्चा प्रत्याशी लोन लेकर चुनाव लड़ सकता है और 4 प्रतिशत वोट पाकर लोन को अदा कर सकता है. अमेरिका के एरीजोना तथा माएन राज्यों में स्थानीय चुनाव के प्रत्याशियों को 25,000 डॉलर का अनुदान चुनाव के पूर्व दिया जाता है. शर्त है कि उनके द्वारा कम-से-कम 200 मतदाताओं से 5-5 डॉलर के चेक पहले हासिल करने होंगे. सोच है कि यदि प्रत्याशी 200 मतदाताओं का समर्थन हासिल कर सकता है, तो उसकी चुनौती को गंभीरता से लिया जाना चाहिए.
यूनिवर्सिटी आफ विसकानसिन के प्रोफेसर केनेथ मेयर के अनुसार अमेरिका में सरकारी मदद से प्रत्याशियों की संख्या में वृद्घि हुई है. दूसरे, निवर्तमान प्रतिनिधियों के निर्विरोध चयन की संख्या में गिरावट आयी है. तीसरे, पाया गया कि निर्वतमान प्रत्याशियों के दोबारा चयन की संभावना में गिरावट आयी है. एक दूसरे अध्ययन में ड्यूक यूनिवर्सिटी की एनी आसबोर्न पुष्टि करती हैं कि सरकारी फंड की उपलब्धि से कई ऐसे लोग समर में उतरते हैं, जो इस दिशा में सोच भी नहीं सकते थे. जो नहीं चाहते कि चुनाव के लिए मित्रों से धन मांगें, इनका साहस बढ़ा है. जाहिर है, इन अध्ययनों से चुनाव प्रक्रिया पर सुप्रभाव स्पष्ट दिखता है.
चुनाव में धन दो तरह से प्रवेश करता है. कुछ धनवान लोग बड़ी रकम अपने चहेते प्रत्याशियों को उपलब्ध करा देते हैं अथवा पार्टी के केंद्रीय कार्यालय से यह रकम मिल जाती है. इस प्रक्रिया में धन संग्रहण का फैलाव कम, किंतु मात्र ज्यादा रहती है. दूसरा रास्ता बड़ी संख्या में छोटी-छोटी रकम को हासिल करना है. इसमें फैलाव ज्यादा परंतु मात्र कम रहती है. लोकतंत्र का रास्ता यह है, परंतु बड़ी संख्या में लोगों से छोटी-छोटी रकम हासिल करने के लिए संगठन चाहिए जैसे वेबसाइट, लोगों के फोन नंबर एवं इमेल आइडी, हर शहर में दफ्तर एवं प्रतिनिधि आदि. ‘आप’ ने इस मॉडल को लागू करने का प्रयास किया है.
परंतु इसके लिए भी सीड मनी जुटानी पड़ी. यह सीड मनी सरकारी फंड से उपलब्ध हो जाये, तो संभावना बनती है कि बड़ी संख्या में छोटी रकम जनता से हासिल की जा सके. समस्या है कि यदि सीड मनी प्रभावी लोगों से ली गयी तो बाद की प्रक्रिया पर इनकी छाप पड़ती ही है. सरकारी फंड से धनी व्यक्तियों का यह शिकंजा टूट सकता है.
अनुमान है कि संसदीय चुनाव में धनबल समर्थित प्रत्याशी द्वारा 5 करोड़ रुपये खर्च किये जाते होंगे. मैं मानता हूं कि जनता द्वारा समर्थित समाजसेवी प्रत्याशी इतने ही प्रचार को 50 लाख में कर लेगा. संसद के सामान्य चुनाव क्षेत्र में 10 लाख वोट पड़ते हैं. इसमें विजयी प्रत्याशी को लगभग 3 लाख मिलते हैं. अत: यदि उसे 20 रुपये की मदद दे दी जाये, तो 60 लाख की रकम पाकर वह जीत सकता है. व्यवस्था बनानी चाहिए कि हर प्रत्याशी को 20 रुपये प्रति वोट की रकम चुनाव के बाद सरकार के द्वारा मुहैया करायी जाये. शर्त हो कि वह कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल करे. रकम धनबल समर्थित प्रत्याशियों को भी दी जाये, परंतु उनके पांच करोड़ के बजट में 60 लाख का महत्व कम होगा, जबकि समाजसेवी प्रत्याशी के अपने 5 लाख के बजट में इस 60 लाख की मदद राशि का महत्व अधिक होगा. कुल मिला कर ईमानदार समाजसेवियों को चुनाव लड़ने को सरकारी फंड देने पर विचार करना चाहिए.