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बिरसा जयंती : बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय मान्यता मिलने में हुआ विलंब

भारतीय इतिहासकाराें-राजनीतिज्ञाें ने भगवान बिरसा मंुडा काे देर से समझा अनुज कुमार सिन्हा बिरसा मुंडा (जिन्हें धरती आबा या भगवान बिरसा मुंडा कहा जाता है) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अाैर उसके बाद भी आदिवासी नेताआें में सबसे बड़ा नाम. 20 साल की उम्र में ही अंग्रेजाें, उनके दलालाें, शाेषकाें, जमींदाराें के खिलाफ उलगुलान कर दिया था. […]

भारतीय इतिहासकाराें-राजनीतिज्ञाें ने भगवान बिरसा मंुडा काे देर से समझा
अनुज कुमार सिन्हा
बिरसा मुंडा (जिन्हें धरती आबा या भगवान बिरसा मुंडा कहा जाता है) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अाैर उसके बाद भी आदिवासी नेताआें में सबसे बड़ा नाम. 20 साल की उम्र में ही अंग्रेजाें, उनके दलालाें, शाेषकाें, जमींदाराें के खिलाफ उलगुलान कर दिया था.
अंग्रेज अफसराें-फाैज की नींद उड़ा दी थी. 25 साल की उम्र पूरा हाेने के पहले ही अपना काम कर दिया था आैर शहीद हाे गये थे. सच यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इस बड़े-साहसी आैर चमत्कारिक आदिवासी नेता काे समझने में, राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देने में काफी वक्त लग गया. झारखंड ही नहीं, देश के लाेग अपने इस नायक के प्रति श्रद्धा-सम्मान रखते हैं.
यह नायक इतिहास के पन्नाें से गाेल हाे गया हाेता, अगर अंग्रेजाें (अफसर आैर अंग्रेज इतिहासकार-लेखक) ने अपने दस्तावेजाें में बिरसा मुंडा काे शामिल नहीं किया हाेता, उनका उल्लेख नहीं किया हाेता. इसलिए कह सकते हैं कि शहादत के बाद बिरसा मुंडा को जीवित रखने में, उन्हें इतिहास में दर्ज कराने में अंग्रेज अफसराें-लेखकाें का बड़ा याेगदान रहा. जिन दिनाें (1895-1899) बिरसा मुंडा का आंदाेलन चल रहा था, उन दिनाें छाेटानागपुर के कमिश्नर, उपायुक्त अाैर पुलिस अधीक्षक के बीच लगातार पत्राचार हाेता था.
अंग्रेजाें ने दस्तावेजीकरण की व्यवस्था कर रखी थी आैर इसी व्यवस्था के कारण बिरसा मुंडा के आंदाेलन के इतिहास की प्रमाणिक जानकारी मिलती है. यह अलग बात है कि बिरसा मुंडा से जुड़े ऐसे दस्तावेज दुनिया के कई देशाें (इंग्लैंड, जर्मनी, बेल्जियम आदि) के साथ-साथ काेलकाता, पटना, दिल्ली के अभिलेखागार-पुस्तकालय में मिल जायेंगे, पर झारखंड में नहीं. यह काम अधूरा है. अंग्रेज लेखकाें का भी इसमें याेगदान है.
बिरसा मुंडा के याेगदान काे किताब में दर्ज करने में अंग्रेज लेखक ब्रैडले-बर्ट ने विलंब नहीं किया. शहादत के लगभग तीन साल के भीतर यानी 1903 में ही उन्हाेंने छाेटानागपुर : ए लिट्ल नाेन प्राेविंस अॉफ द अंपायर (स्मिथ, एल्डर एंड कंपनी, 15वाटर लू प्लेस, लंदन) में ही बिरसा मुंडा के उलगुलान का जिक्र कर दिया था. इसके बाद कई अंग्रेज लेखक बिरसा मुंडा का उल्लेख करते गये.
लेकिन भारतीय लेखकाें आैर इतिहासकाराें ने बिरसा मुंडा पर लिखने में समय लिया. मानवशास्त्री शरतचंद्र राय ने 1912 में मुंडा एंड देयर कंट्री में बिरसा के आंदाेलन काे जगह दी. 1926 में फादर हॉफमैन ने बिरसा के आंदाेलन का उल्लेख इनसाइक्लाेपीडिया मुंडारिका में किया.
इसके बाद जब अलग झारखंड राज्य की मांग उठी, ताे समय-समय पर बिरसा मुंडा का नाम आता रहा. तब बिरसा मुंडा काे छाेटानागपुर तक सीमित कर दिया गया था. कुमार सुरेश सिंह, सुरेंद्र प्रसाद सिन्हा ने बिरसा पर किताब लिख कर इस काम काे आगे बढ़ाया.
देश में एक नयी बहस इस विषय पर हाे सकती है कि अगर 9 जून 1900 काे बिरसा मुंडा शहीद नहीं हाेते, अपनी आयु (आैसतन 65-70 साल) पूरी कर लेते, आजादी की लड़ाई में आगे भी सक्रिय रहते ताे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका स्थान क्या हाेता. महात्मा गांधी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि आजादी की लड़ाई के बड़े नायक रहे हैं.
इन बड़े राष्ट्रीय नेताआें का जन्म लगभग उसी समय (दस साल-पंद्रह साल आगे या पीछे) हुआ था, जब बिरसा मुंडा (15 नवंबर, 1875) का जन्म हुआ था. इस दृष्टिकाेण में महात्मा गांधी (जन्म 2 अक्तूबर 1869) बिरसा मुंडा से छह साल बड़े थे. डॉ राजेंद्र प्रसाद ( 1884) से बिरसा मुंडा नाै साल बड़े, जवाहरलाल नेहरू (1889) से 14 साल बड़े आैर तिलक की उम्र के लगभग समकक्ष थे.
जाहिर है कि अगर बिरसा मुंडा शहीद नहीं हाेते, सक्रिय रहते ताे राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान वर्षाें पहले बन गयी हाेती. हालांकि ऐसी तुलना कल्पना ही है.
बिरसा मुंडा कम उम्र में शहीद हाे गये थे, सिर्फ 25 साल की उम्र में. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिरसा की शहादत की बात जब भी आती है, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवराम राजगुरु, खुदी राम बाेस आदि युवकाें (भारत मां के बहादुर लाल) की याद आ जाती है.
25-30 साल की उम्र में ही ये महानायक शहीद हाे गये थे. सरदार भगत सिंह काे जब फांसी दी गयी, उस समय उनकी उम्र सिर्फ 24 साल, राजगुरु की 23 साल आैर खुदी राम बाेस की सिर्फ 18 साल थी. यानी लगभग वही उम्र, जिस उम्र में बिरसा (25 साल) शहीद हुए थे. हां, इन नायकाें काे राष्ट्रीय स्तर पर पहले जगह मिली, बिरसा मुंडा में थाेड़ा समय लगा. 1940 में जब रामगढ़ (तब जिला हजारीबाग था) में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, पहली बार बिरसा मुंडा के नाम पर स्वागत द्वार बना था.
डॉ राजेंद्र प्रसाद स्वागत अध्यक्ष थे. हजारीबाग के बाबू रामनारायण सिंह ने अगर दबाव नहीं दिया हाेता, ताे शायद रामगढ़ का अधिवेशन बिहार के किसी अन्य स्थान पर हाेता. तब शायद बिरसा मुंडा के नाम पर द्वार भी नहीं बनता,चर्चा भी नहीं हाेती आैर बिरसा मुंडा काे राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देने में थाेड़ा वक्त आैर लगता.
अब झारखंड बन गया है, बिरसा मुंडा अब राष्ट्रीय नायक बन चुके हैं. खुद प्रधानमंत्री तक ने लाल किले से उनके याेगदान की चर्चा की है. बड़े राष्ट्रीय नेता उनकी जन्मस्थली जाते हैं.
संसद में उनकी तसवीर लगी है. बुंडू में उनकी 150 फीट की प्रतिमा बन रही है. उन पर किताबाें की कमी नहीं है. काेर्स में बिरसा मुंडा की जीवनी पढ़ाई जाती है. इस सम्मान के वे हकदार हैं भी. अब जरूरत है बिरसा के आदर्श काे अपनाने की, उनके सपने काे साकार करने की. यही आज की सबसे बड़ी चुनाैती है.

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