पार्टियों व नेताओं के कोण से सोचें तो चुनाव का समय विराट आत्म-प्रेम का समय होता है. ऐसा समय जब हर पार्टी को लगता है कि उसका झंडा बाकियों से ऊंचा है और हर नेता सोचता है कि सबसे उजली धोती उसी की है. अपने झंडे को ऊंचा और धोती को उजला साबित करने के शुरू से बस दो ही उपाय रहे हैं. एक तो यह कि आप मन, वचन, कर्म से अपने आचरण को पवित्र और संयमित बनायें और यकीन रखें कि देरी से ही सही, जीत हमेशा सत्य की होती है.
लेकिन गांधी-भाव की राजनीति के परिदृश्य से विदा होने के साथ यह उपाय अब अमल में नहीं रहा. पार्टियों और नेताओं को आज का समय इस उपाय के अनुकूल नहीं जान पड़ता. अब उनकी राजनीति का प्रेरक-वाक्य है- जीत हर कीमत पर और अबकी बार ही होनी चाहिए. इसलिए, वे दूसरे उपाय का चयन करते हैं. दूसरा उपाय यह है कि आप अपने दोषों को जतन से ढंके रहें और दूसरे के दोषों को चिल्ला-चिल्ला कर उभारें, दोष न हों तो उसे गढ़ें और आरोपित करें. ऐसे में चुनावों के वक्त की राजनीति एक अटूट कीचड़-उछाल प्रतियोगिता में बदल जाती है.
नेतागण अपने झंडे को ऊंचा और धोती को ज्यादा सफेद दिखाने के लिए मतदाताओं के मन में छुपे पूर्वग्रहों को तेज से तेजतर करने के प्रयास करते हैं. नफरत फैलानेवाले बयान इसी प्रयास के परिणाम हैं. बोटी-बोटी काट देंगे, जमीन में गाड़ देंगे, पाकिस्तान भेज देंगे, अमेरिका को ठोक देंगे- सरीखे जुमले इस बार चुनावी फिजा में जिस तरह गूंज रहे हैं, वैसे पहले कभी नहीं गूंजे और इस गूंज के आगे चुनाव आयोग असहाय दिख रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में आयोग के पास नफरत फैलानेवाले बयानों की 33 गंभीर शिकायतें आयी थीं, लेकिन इस बार इनकी संख्या बढ़ कर 124 हो चुकी है.
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लॉ कमीशन ऐसे बयानों पर रोक के लिए कानून की रूपरेखा बना रहा है और चुनाव आयोग को ज्यादा अधिकार की बात चल रही है. पर सोचा यह भी जाना चाहिए कि सार्वजनिक बयानों से बढ़ता हिंसा-भाव क्या आधुनिक भारत के मानस में पैठे किसी गहरे रोग की अभिव्यक्ति है? ऐसा इसलिए, क्योंकि समाजशास्त्री ‘हेट स्पीच’ को जनसंहार (जेनोसाइड) की तरफ बढ़ते समाज की एक अवस्था बताते हैं.