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सरकारी महकमों में कार्य निष्पादन की हालत ठीक उसी कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘नौ दिन चले ढाई कोस’. निश्चिंतता का आलम पहले की ही तरह है कि अधिकारियों को अपनी इस विलंबित गति का ख्याल ही नहीं आता. उन्हें शायद यह चिंता भी नहीं सताती कि उनकी इस गति से किसी परिवार का […]

सरकारी महकमों में कार्य निष्पादन की हालत ठीक उसी कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘नौ दिन चले ढाई कोस’. निश्चिंतता का आलम पहले की ही तरह है कि अधिकारियों को अपनी इस विलंबित गति का ख्याल ही नहीं आता. उन्हें शायद यह चिंता भी नहीं सताती कि उनकी इस गति से किसी परिवार का आधार टूट सकता है, किसी का सपना चकनाचूर हो सकता है और किसी का कैरियर तबाह हो सकता है.

सचमुच ऐसा नहीं होता, तो झरिया के गरीब रिक्शाचालक बैजनाथ रविदास का परिवार तबाह नहीं होता. वह जिस राशन कार्ड के लिए गत चार वर्षों से दौड़ लगाता रहा, उसे जान गंवाने के बाद ही उसके परिवार को महज चार दिन में ही मिल गया. काश ऐसा पहले हुआ होता तो उसकी पत्नी को विधवा नहीं होना पड़ता, बच्चों को अनाथ नहीं होना पड़ता. हमारे जनप्रतिनिधियों की इस मुद्दे पर क्या भूमिका रही, यह सब कुछ जनता देख रही है. वक्त पर जनता जवाब जरूर देगी.

शशि भूषण, निरसा, धनबाद

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