अघायल बगुला के पोठिया तीत

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार इधर एक कहावत बड़ा प्रसिद्ध है- भूख न माने बासी भात. इस कहावत के समानांतर एक और कम प्रसिद्ध कहावत है- अघायल बगुला के पोठिया तीत. मतलब- जब पेट भर जाता है, तो थाली में पड़े रसगुल्ले की तरफ भी देखने की इच्छा नहीं होती. भोजन के दृश्यों पर आप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 24, 2017 5:21 AM
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
इधर एक कहावत बड़ा प्रसिद्ध है- भूख न माने बासी भात. इस कहावत के समानांतर एक और कम प्रसिद्ध कहावत है- अघायल बगुला के पोठिया तीत. मतलब- जब पेट भर जाता है, तो थाली में पड़े रसगुल्ले की तरफ भी देखने की इच्छा नहीं होती. भोजन के दृश्यों पर आप सोचेंगे, तो दो विपरीत दृश्य आपकी आंखों के सामने तैरने लगेंगे. पहला तो भूखे-नंगे लोगों की लंबी कतारें और दूसरा, भोज-बारात में अन्न और मिष्ठानों की भारी उपेक्षा. दरअसल भोज-बारात में आग्रह पर इतना बल दे दिया जाता है कि आग्रह कब दुराग्रह में परिवर्तित होकर अन्नपूर्णा देवी का अपमान करने लगता है, पता ही नहीं चलता.
ग्रामीण जीवन के भोज से निकलकर शहर में प्रचलित पार्टी की परंपरा में भी इस बात को नोट किया जा सकता है कि कैसे पढ़ी-लिखी जमातें भी पार्टियों में आने के बाद अन्न की बर्बादी की तरफ से मुख मोड़े रहती हैं.
गांव के भोज में तो यह बर्बादी व्यापक रूप में होता है. अधखाए भोजन फेंक दिये जाते हैं, जो कई-कई दिनों तक सड़ते रहते हैं और उसकी गंध से समूचा वातावरण दूषित होता रहता है. यहां परोसनेवाले को भी उतना ही दोषी ठहराया जा सकता है कि वे जितना खाये, उतना ही थाली में देने के सिद्धांत पर अमल क्यों नहीं करते. हालांकि, इस मामले में शहर समय-समय पर संशोधन करता रहा है.
वफे सिस्टम इसका एक उदाहरण है कि रुचि व भूख के अनुसार खुद ही परोसें और आराम से खायें. लेकिन, यह सिस्टम अभी देशभर में पूर्ण रूप से लागू होना बाकी है.
दरअसल, गांव अब भी उसी पद्धति में अटका हुआ है और पांत में बिठाकर परोस के खिला रहा है.बेशक यह एक परंपरा है और संस्कार भी कि सारे लोग एकसाथ बैठते हैं. साथ-साथ उठते हैं और इस बीच हंसी-ठट्ठा का माहौल भी बनता है. लेकिन, इसके कारण अन्न की बर्बादी पर से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं. ग्रामीण समाज के भोज में अब भी कसम खिला-खिलाकर खिलाया जाता है. नेह में पत्तल पर कुछ ज्यादा ही डाल दिया जाता है. इसके कारण अन्न की व्यापक क्षति होती है और कोई इस बात को उतना गंभीरता से नहीं लेता.
असल में भोज और पार्टी एक शान वाली बात हो जाती है. इसमें कोशिश यह की जाती है कि कोई चीज कम न पड़ जाये. कम पड़ जाने का मतलब खिल्ली उड़ने की नौबत हो जाना होता है. यह एक डर है, जिसके कारण न सिर्फ जरूरत से ज्यादा भोजन बना लिया जाता है, अपितु परोसने के क्रम में भी दरियादिली दिखायी जाती है.
शादी-विवाह के लगन के दिनों में यह प्रचलन कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है. एक बारात राजाओं का समूह बन जाती है. बरात को संतुष्ट रखना लड़की पक्ष के लिए एक बड़ी चुनौती होती है. इस चुनौती में अन्न के उस ढेर की बलि चढ़ जाती है, जिसके न होने से इसी देश के हजारों-लाखों गरीबों-मासूमों के चेहरे मलिन रहते हैं.

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