एक स्वस्थ, सक्षम और सुदृढ़ न्यायपालिका के बिना एक अच्छे लोकतंत्र की कल्पना संभव नहीं है. इसके लिए आवश्यक है कि देश के सभी तबकों का यथोचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाये. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस आवश्यकता को रेखांकित करते हुए उचित ही कहा है कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर परंपरागत रूप से वंचित तबकों- अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कम है तथा इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
मौजूदा स्थिति में सुधार के उपायों की तात्कालिक जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने न्यायपालिका से अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर सामाजिक विविधता के अनुरूप प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करने का आग्रह किया है. अधीनस्थ, उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के 17 हजार जजों में देश की आधी आबादी यानी महिलाओं की संख्या बस 4,700 के आसपास है. पिछले एक दशक से भी अधिक समयावधि में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने सबसे बड़ी अदालत में नियुक्ति के लिए सिर्फ तीन महिला जजों का नाम प्रस्तावित किया है.
अगर हम आंकड़ों की नजर से देखें, तो सार्वजनिक जीवन और श्रम क्षमता में जहां महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है, वहीं उनके विरुद्ध अपराधों की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है. संपत्ति और कारोबार के लिहाज से भी महिलाओं के दावे और अधिकार मजबूत हो रहे हैं. ऐसे में उनके और अन्य वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी है कि उनकी उपस्थिति न्यायिक संस्थाओं में भी बढ़े. वर्ष 2010 में प्रधान न्यायाधीश के पद से केजी बालाकृष्णन के सेवानिवृत्त होने के बाद से बीते सात सालों में सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति से एक भी व्यक्ति न्यायाधीश के पद पर नियुक्त नहीं हुआ है.
देश की 16 फीसदी से ज्यादा आबादी के इस वर्ग से कोई भी उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश नहीं है. यही दशा जनजाति पिछड़े वर्ग की भी है. राष्ट्रपति की इस सलाह पर बहुत गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है कि निचली अदालतों में कार्यरत वंचित वर्ग के जजों की क्षमता और प्रतिभा को निखारने के प्रयास होने चाहिए ताकि ऊपरी अदालतों में उनके जाने की राह आसान हो. यह भी ध्यान देने की बात है कि कॉलेजियम अक्सर नामों को प्रस्तावित करने में वरिष्ठता के मानक को नजरअंदाज कर देता है.
न्यायिक नियुक्तियों के मसले पर केंद्र और सर्वोच्च न्यायालय के बीच तकरार और मुकदमेबाजी भी हो चुकी है. कई बार नियुक्तियों को लेकर न्यायाधीशों में आपसी खटपट की खबरें आती रहती हैं. अधीनस्थ न्यायालयों में आरक्षण की व्यवस्था के कारण एक हद तक वंचित वर्गों को जगहें मिली हैं, पर महिलाएं वहां भी बहुत ही कम हैं. आजादी के सात दशक बाद भी इन विसंगतियों को दुरुस्त न किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. आशा है कि राष्ट्रपति द्वारा चिंता जताये जाने के बाद न्यायपालिका और सरकार इस मसले पर गंभीरता से विचार करेंगे.