मिस्र हमले के पीछे कई पहलू
बीते शुक्रवार को मिस्र में हुए चरमपंथी हमले से जुड़ी कुछ बातें बहुत अहम हैं. पहली बात यह है कि यह हमला बहुत ही सुनियोजित था. चरमपंथियों ने योजनाबद्ध तरीके से जुमे की नमाज का वक्त चुना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारा जा सके. इस भयानक हमले के तीन स्तर दिखते हैं. पहला, […]
बीते शुक्रवार को मिस्र में हुए चरमपंथी हमले से जुड़ी कुछ बातें बहुत अहम हैं. पहली बात यह है कि यह हमला बहुत ही सुनियोजित था. चरमपंथियों ने योजनाबद्ध तरीके से जुमे की नमाज का वक्त चुना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारा जा सके. इस भयानक हमले के तीन स्तर दिखते हैं. पहला, सूफी मस्जिद में विस्फोटक रखे गये. दूसरा, हमले की जगह के आसपास बंदूकधारी भी तैयार थे, ताकि विस्फोट से बचकर भागनेवालों को निशाना बनाया जा सके.
और तीसरा यह कि विस्फोट के बाद घायलों को जिन एंबूलेंस से ले जाया जायेगा, उनको भी निशाना बनाया गया, ताकि कोई भी बचने न पाये. यानी वहां मौजूद ज्यादा से ज्यादा लोग मारे जायें, यह थी चरमपंथियों की पूरी योजना. हालांकि, अभी इस हमले की जिम्मेदारी किसी संगठन ने नहीं ली है, लेकिन इतना जरूर है कि अब अरब वर्ल्ड में चरमपंथिजियों के हमलों का पैटर्न बदल रहा है. आइएस की जो विचारधारा है, उसके ऐतबार से किसी के द्वारा इस हमले की जिम्मेदारी न लेने का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि वे वहां पर नहीं हैं, बल्कि चरमपंथी विचारधारा वहां मौजूद है ही.
अरब दुनिया में इस तरह हमले को अंजाम देने के तरीके को पहली बार देखा गया है. यह भी कि मिस्र में सूफी मस्जिद को पहली बार लक्ष्य बनाया गया है. जबकि, ऐसे हमले पाकिस्तान और अफगानिस्तान में ही होते रहे हैं. अरब दुनिया में बस इतना ही होता था, कि कहीं हमला होता था, कुछ लोग हताहत होते थे. लेकिन इस हमले ने तो चरमपंथ के कई भ्रम तोड़ डाले और इससे यह साफ लगता है कि चरमपंथी विचारधारा एक जगह से दूसरी जगह पर अपना आकार ले रही है. अरब दुनिया में ही एक ‘आर्मी ऑफ इस्लाम’ नाम का गुट है, जो यह मानता है कि मासूमों-निर्दोषों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए और इसी बुनियाद पर आर्मी ऑफ इस्लाम ने इस्लामिक स्टेट की विचारधारा का खंडन भी किया है. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप चरमपंथियों ने निर्दोषों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. इस तरह का एक संघर्ष चल रहा है, जिसका निशाना बन रहे हैं निर्दोष लोग.
मिस्र के राष्ट्रपति ने जिस तरह बयान दिया कि उनकी सरकार इस हमले का बदला लेगी, तो यह उनका राजनीतिक बयान लगता है. यह बयान एक राष्ट्राध्यक्ष का बयान नहीं लगता, क्योंकि अगले साल फरवरी-मार्च में वहां चुनाव होने हैं, इसलिए वे अपनी जनता को यह जताना चाहते हैं कि वे ही इस समस्या का बेहतर हल दे सकते हैं. ऐसी समस्याओं का हल बदले की भावना से नहीं, बल्कि योजना बनाकर और ब्लूप्रिंट तैयार कर ही बेहतर हल निकाला जा सकता है.
पिछले पांच साल से मिस्र में एक युद्ध चल रहा है, जिसका केंद्र मिस्र का सिनाई प्रांत है, जहां यह हमला हुआ है. बीते कुछ समय में लीबिया, सीरिया, इराक आदि से आइएस को बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी है, जिसकी बौखलाहट उनमें पल रही है. जहां-जहां से भी इन्हें भगाया गया है, यह पता करना मुश्किल है कि आखिर वे भागकर कहां गये हैं. ऐसा भी नहीं है भगाने की प्रक्रिया में उन सभी को मार गिराया गया. इसलिए यह पता करना बहुत मुश्किल है कि वे भागकर किनके साथ मिल गये, किस तरह की नयी रणनीतियों पर वे काम कर रहे हैं और उनमें बदले की भावना कहीं ज्यादा तो नहीं बढ़ गयी है? ये लोग कहीं का बदला कहीं तो नहीं ले रहे हैं? इन सवालों की गंभरता पर विचार कर ही अरब वर्ल्ड को यह बात समझने की कोशिश करनी होगी कि वे चरमपंथ से मुकाबला कैसे करेंगे, जब चरमपंथी विचारधारा एक जगह से दूसरी जगह जाकर फिर से आकार ले लेती रही है.
दरअसल, सूफियों से और सूफी इस्लाम से दूसरे इस्लामी चरमपंथी इसलिए खार खाते हैं, क्योंकि चरमपंथी जिस इस्लामी विचारधारा को पालते-पोसते हैं (जिसमें पॉलिटिकल पावर और पैसा है), वह कहीं खतरे में न पड़ जाये. मसलन, अगर मुसलमान सूफीवाद से प्रभावित होंगे, तो धर्म के नाम पर ताकत और पैसे का खेल वे कैसे खेलेंगे? चरमपंथी डरते हैं कि जिन नौजवानों को सोशल मीडिया या किसी अन्य माध्यम से लालच देकर धर्म के नाम पर चरमपंथी बना रहे हैं, वह सूफीवाद के बढ़ने से ध्वस्त हो जायेगा. क्योंकि अगर गौर किया जाये, तो चरमपंथ आज एक सत्ता-शासन बन चुका है, जिसमें नौजवानों को पैसे देकर भर्ती तक किये जाते हैं. धर्म के नाम पर उन्हें चरमपंथी बनाकर ऐसे हमलों को अंजाम दिया जाता है.
चाहे अमेरिका हो या अरब दुनिया, आतंकवाद बढ़ रहा है. आतंकवाद से लड़ने के लिए यह बहुत जरूरी है कि इसकी जड़ को खोजा जाये, जहां से यह पैदा हो रहा है. इसे तीन स्तर पर जाकर ही रोका जा सकता है. पहला, मजहब को लेकर किस तरह का जनता से संवाद (डिस्कोर्स) स्थापित करते हैं. दूसरा, सामाजिक स्तर पर यह देखना होगा कि लोग किस हालत में चरमपंथी बन रहे हैं. और तीसरा यह कि क्या आर्थिक हालात का कमजोर होना तो इसका कारण नहीं है. इन तथ्यों के आधार पर ही आतंकवाद की जड़ों को काटा जा सकता है. और यह भी समझा जा सकता है कि यूरोप के बेरोजगार नौजवान सीरिया में सैलरी पैकेज लेकर लड़ाका क्यों बनते हैं, जबकि उन्हें उनकी सरकार बेरोजगारी भत्ता तक देती है. यह काम लीबिया या सीरिया के नौजवान करें, तो बात समझ में आती है.
डॉ फज्जुर रहमान सिद्दीकी
रिसर्च फेलो, इंडियन कौंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स