बदलते दौर में मीडिया

आप हम सभी यह स्वीकार करते हैं कि तकनीक ने सारा परिद्श्य बदल दिया है. तकनीक ने चुपके से कब हमारे जीवन को परिवर्तित कर दिया, हमें पता ही नहीं चला. अब हम सब मौका मिलते ही मोबाइल के नये मॉडल और पैकेज की बातें करने लगते हैं. व्हाट्सएप और फेसबुक जीवन की जरूरतों में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 27, 2017 9:05 AM

आप हम सभी यह स्वीकार करते हैं कि तकनीक ने सारा परिद्श्य बदल दिया है. तकनीक ने चुपके से कब हमारे जीवन को परिवर्तित कर दिया, हमें पता ही नहीं चला. अब हम सब मौका मिलते ही मोबाइल के नये मॉडल और पैकेज की बातें करने लगते हैं. व्हाट्सएप और फेसबुक जीवन की जरूरतों में कब शामिल हो गये, हमें पता ही नहीं चला. इन माध्यमों ने खबरों के पेश किये जाने के तौर तरीकों को भी बदल दिया है. पिछले दिनों मुझे बीबीसी के लंदन में आयोजित मीडिया लीडरशिप इवेंट में हिस्सा लेने का मौका मिला.

तीन दिनों की चर्चा में बीबीसी और ब्रिटेन के विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया. इसमें बदलते तकनीकी परिदृश्य में मीडिया की भूमिका कैसी हो, वह इन बदलावों से कैसे सामंजस्य बैठा सके और अपनी मूल उद्देश्य यानी पत्रकारिता को जीवंत कैसे रख सके, इस पर विस्तार से चर्चा हुई. मेरा मानना है कि बीबीसी, लंदन पत्रकारिता का सिद्ध पीठ है और इतने वर्षों बाद भी उसने अपनी साख बनाये रखी है.


बीबीसी के पत्रकारों और विशेषज्ञों को सुनने में अच्छा लगा कि कैसे पत्रकारिता को जीवित रखते हुए तकनीक को अपनाये जाने का बीबीसी प्रयास कर रहा है. मैं कई वर्षों तक बीबीसी की हिंदी सेवा से जुड़ा रहा हूं और जानता हूं कि इतने बड़े पारंपरिक संस्थान में बदलाव लाना आसान नहीं है. लेकिन, कई दिनों की बातचीत से लगा कि बीबीसी बदलते दौर के साथ कदमताल करने की कोशिश कर रहा है. ब्रिटेन जैसे देश में जहां मोबाइल और नेटवर्क सर्वसुलभ है, इसका असर अखबारों पर पड़ा है. गार्डियन जैसे प्रतिष्ठित अखबार संघर्ष कर रहे हैं. वहां अखबारों का मॉडल दूसरी तरह का है. भारत में अपनी लागत से बहुत कीमत पर लोग अखबार पढ़ना चाहते हैं, पर ब्रिटेन में लोग प्रासंगिक खबरें पढ़ने के लिए पूरी कीमत अदा करने को तैयार रहते हैं. वहां एक ओर इवनिंग एक्सप्रेस जैसे अखबार मुफ्त बांटे जाते हैं, दूसरी ओर गार्डियन, टाइम्स और इंडिपेंडेंट जैसे अखबार करीब दो पाउंड यानी लगभग 170 रुपये में बिकते हैं. हम जानते हैं कि एक अखबार के लिए पाठकों का प्रेम ही उसकी बड़ी पूंजी होती है. मेरा मानना है कि अखबार किसी मालिक या संपादक का नहीं होता है.

उसका मालिक तो अखबार का पाठक होता है. पाठक की कसौटी पर ही अखबार की असली परीक्षा होती है. ऐसा नहीं है कि अखबारों में कमियां नहीं हैं. अखबारों ने भी जनसरोकार के मुद्दों को उठाना बंद कर दिया है. अब किसानों के प्रदर्शन की खबरें सुर्खियां नहीं बनतीं. बेरोजगारी और पूर्वोत्तर की घटनाएं मीडिया के एजेंडे में पहले से नहीं हैं. बाजार के दबाव में अखबार भी शहर केंद्रित हो गये हैं. अखबार उन लोगों की अक्सर अनदेखी कर देते हैं, जिन्हें उसकी सबसे अधिक जरूरत होती है. दूसरी ओर सरकारें बड़ी विज्ञापनदाता हो गयीं हैं, वह दबाव अलग है. सबसे महत्वपूर्ण है कि समय के साथ पाठकवर्ग भी बदल गया है. अखबार पहले खबरों के लिए पढ़े जाते थे. मार्केटिंग के इस दौर में अखबार फ्री कूपन और मुफ्त लोटा-बाल्टी के आधार पर निर्धारित किये जाने लगे हैं. पाठकों को भी इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा.

यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रामाणिक स्रोत हैं. आपने गौर किया होगा कि सोशल मीडिया पर रोजाना कितनी सच्ची झूठी खबरें चलतीं हैं. टीवी चैनल तो रोज शाम एक छद्ध विषय पर बहसें कराते हैं. चोटीकटवा जैसी अफवाह को जोर-शोर से प्रसारित किया जाता है. इस सामूहिक उन्माद को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत नहीं किया जाता. यह नहीं बताया जाता कि इस अफवाह के शिकार केवल निम्न वर्ग के लोग हैं. दूसरी ओर किसानों के धरने की खबरें मीडिया में स्थान नहीं पा पातीं. कभी टीवी में महंगी सब्जियों की रिपोर्टिंग पर गौर करें. एंकर उन्हीं सब्जियों की महंगाई पर अपना ध्यान केंद्रित करता या करती है जो उस सीजन की नहीं होतीं. बेमौसमी सब्जियां तो हमेशा से महंगी मिलती हैं. लेकिन, इन शहरी नवयुवक अथवा नवयुवती को इसका ज्ञान नहीं होता. टीवी में एक और विचित्र बात स्थापित हो गयी है. वहां एंकर जितने जोर से चिल्लाये, उसे उतनी सफल बहस माना जाने लगा है.

मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चुनौती है युवा मन को समझना. बीबीसी की चर्चा का एक सत्र युवाओं को लेकर था. बीबीसी का एक चैनल थ्री युवाओं को समर्पित है और युवा ही उसे संचालित करते हैं. ऐसा मान लिया गया है कि युवाओं की खबरों में कोई दिलचस्पी नहीं है. बीबीसी ने युवाओं पर किये गये एक सर्वे के जरिये कई चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे. एक तो यह कि युवाओं में खबरों को लेकर खासी दिलचस्पी है, लेकिन वे पारंपरिक तरीके से इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

बीबीसी थ्री के सोशल मीडिया एक्सक्यूटिव हैं 27 वर्षीय हैरी मूर. उन्होंने बड़े दिलचस्प अंदाज में अपनी बात की शुरुआत की. कहा कि सभी समस्याओं की जड़ हम युवाओं को मान लिया जाता है. कहा जाता है कि युवाओं की खबरों में कोई दिलचस्पी नहीं है, हमारा इनसे कोई सरोकार नहीं. ये सारे तथ्य गलत हैं. खबरों और आजकल की घटनाओं में युवाओं की दिलचस्पी है, लेकिन उन्हें पारंपरिक तरीके से यह स्वीकार्य नहीं है.

ब्रिटेन के चुनाव की सारी दिलचस्प बातें एक कार्टून स्ट्रिप के जरिये उन्होंने चैनल थ्री पर पेश की थीं जिसे युवाओं ने बेहद पसंद किया. वेबसाइट पर लाखों लोगों ने इस देखा. ब्रिटेन के अखबारों में खास चर्चा रही. कुछ इसके समर्थन में थे, तो कुछ विरोध में. लेकिन यह सही है कि बीबीसी का यह पारंपरिक तरीका नहीं है. पुरानी पीढ़ी को यह पंसद नहीं. कुल मिलाकर यह बात सामने आयी कि युवाओं तक खबरें पहुंचाने के लिए उसके तौर तरीके बदलने होंगे. उनकी तरह सोचना होगा. तकनीक की बात करें तो मीडिया के क्षेत्र में भी खूब प्रयोग हुए हैं. वोइस से टैक्सट जैसे कई सॉफ्टवेयर भी विकसित हुए हैं. ऐसा माना जा रहा है कि बदलते तकनीकी परिदृश्य का असर अखबारों के साथ-साथ टीवी पर भी आयेगा. लोग वेबसाइट और अन्य नये माध्यमों के जरिये खबरें प्राप्त कर रहे हैं, वे भविष्य में अन्य माध्यमों की अनदेखी कर सकते हैं. मेरा मानना है कि हालांकि सभी माध्यमों की अपनी एक भूमिका बनी रहेगी. भारत के संदर्भ में भी ये बातें सही हैं. तकनीक ने हमें भी दुनिया से इतना जोड़ दिया है कि अब हम भी इन बदलावों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते.

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

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