नरेंद्र मोदी का भीतरी विपक्ष

गुजरात में सत्ता विरोधी रुझान और कुछ जातीय समूहों के भाजपा-विरोध को अपनी लोकप्रियता से शांत करने के लिए ‘गुजरात-पुत्र’ नरेंद्र मोदी जब चंद रोज पहले धुआंधार चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे, तब उनके मुखर विरोधी भाजपा नेता अरुण शौरी बोल रहे थे कि नरेंद्र मोदी सरकार की खासियत है झूठ. मोदी भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 29, 2017 8:47 AM
गुजरात में सत्ता विरोधी रुझान और कुछ जातीय समूहों के भाजपा-विरोध को अपनी लोकप्रियता से शांत करने के लिए ‘गुजरात-पुत्र’ नरेंद्र मोदी जब चंद रोज पहले धुआंधार चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे, तब उनके मुखर विरोधी भाजपा नेता अरुण शौरी बोल रहे थे कि नरेंद्र मोदी सरकार की खासियत है झूठ. मोदी भी वीपी सिंह की तरह अवसरानुकूल झूठ बोलते हैं. वे रोजगार सृजन जैसे कई वादे पूरा करने में विफल रहे हैं. एनडीए की अटल-सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे प्रखर पत्रकार अरुण शौरी ने दिल्ली में एक कार्यक्रम में यह भी कहा कि मोदी और आज का प्रधानमंत्री कार्यालय ‘डरा हुआ है’.
यह तथ्य कम रोचक नहीं कि जो नरेंद्र मोदी विपक्ष के सफाये की नीति पर चल रहे हैं, स्वयं उनकी पार्टी में उनका विपक्ष खड़ा हो रहा है. शौरी काफी समय से मोदी सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करते आये हैं. नोटबंदी और जीएसटी की जितनी तीखी आलोचना यशवंत सिन्हा ने की, उसने भाजपा ही नहीं, विपक्ष को भी चौंकाया. सिन्हा भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और एनडीए सरकार में वित्त मंत्री रहे हैं. अभिनेता से नेता बने शत्रुघ्न सिन्हा भी भाजपा में बढ़ते मोदी विरोध का हिस्सा हैं.
साल 2014 के बाद भाजपा में सर्वशक्तिमान बनकर उभरे नरेंद्र मोदी का उनकी ही पार्टी के भीतर यह मुखर विरोध चौंकाता नहीं है. तमाम कमजोरियों के बावजूद लोकतंत्र की यह बड़ी खूबी है. आप विपक्ष को जितना दबाना चाहेंगे, वह मिट्टी के भीतर अंकुआते बीज की तरह पनपता जायेगा. आप अपनी पार्टी में कितने ही ताकतवर हो जाएं, विरोध के स्वर वहां भी फूटेंगे जरूर.
अपने समय के कई अत्यंत प्रभावशाली नेताओं के बावजूद तत्कालीन कांग्रेस और सरकार में पूरी तरह छाये जवाहरलाल नेहरू का विरोध कम नहीं था. नेहरू बहुत लोकतांत्रिक नेता थे और कम-से-कम प्रकट में अपना विरोध सहते, सुनते और कई बार प्रोत्साहित भी करते थे. इंदिरा गांधी अपने पिता की राजनीतिक परंपरा से उभरी थीं. शुरू से ही उन्होंने विरोध झेला और उस पर विजय पायी, हालांकि पार्टी विभाजित हुई. कालांतर में उनमें अपने विरोध को सहने-समझने की सामर्थ्य कम होती गयी. यहां तक कि वे विरोधी नेताओं की घोर उपेक्षा करने लगीं. अपने देशव्यापी विरोध को कुचलने के लिए उन्होंने आपातकाल लागू किया और संविधान तक को निलंबित कर दिया. इसकी उन्हें और देश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, यद्यपि इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत ही हुआ.
पहले जनसंघ और फिर भाजपा में अटल-आडवाणी-जोशी की तिकड़ी बरसों तक छायी रही. कई चुनावों में भारी विफलताओं के लिए वह निशाने पर भी रही. ‘वंशवादी’ कांग्रेस में सोनिया और राहुल विरोधी स्वर यदा-कदा आज भी उठते हैं, जिन्हें स्वस्थ दृष्टि से देखने की समझ उसके नेतृत्व में है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दशक से सभी दलों में आंतरिक लोकतंत्र काफी कमजोर हुआ है. वाम दल अपवाद कहे जा सकते हैं.
अपने को ‘वंशवाद-मुक्त और लोकतांत्रिक’ कहनेवाली भाजपा में इन दिनों नरेंद्र मोदी की जैसी ‘सर्वशक्तिमान’ हैसियत है, उसे देखते हुए ही कई राजनीतिक टिप्पणीकारों ने उनकी तुलना इंदिरा गांधी से की है. उनका आशय है कि मोदी न केवल विपक्षी दलों को कमजोर करने पर तुले हैं, बल्कि इंदिरा गांधी की तरह ही अपनी पार्टी एवं सरकार के भीतर वैकल्पिक नेतृत्व और विरोधी विचार पनपने देना नहीं चाहते. वहां कोई नंबर-दो की हैसियत में नहीं है. एक से दस नंबर तक मोदी ही मोदी हैं.
भाजपा में नरेंद्र मोदी के उदय से ही ऐसी प्रवृत्ति दिखायी देती है. गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी के साथ-साथ संजय जोशी का भी ग्राफ तेजी से बढ़ रहा था. फिर कैसे संजय जोशी हाशिये पर डाल दिये गये, इसकी कई कथाएं हैं. 2002 के गुजरात दंगों के समय ‘राजधर्म’ निभाने की अटल की सलाह उन्होंने अनसुनी कर दी थी. 2012 में तीसरी बार गुजरात फतह करनेवाले नरेंद्र मोदी जब 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनना चाहते थे, तब वे मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ चुनाव अभियान समिति के प्रभारी भी थे. भाजपा के सयाने नेता एलके आडवाणी ने उसी समय ‘एक आदमी, एक पद’ के सिद्धांत की वकालत करते हुए नरेंद्र मोदी का विरोध किया था. उसके बाद आडवाणी किस तरह किनारे किये गये और कई अवसरों पर अपमानित भी, यह सब ताजा इतिहास है.
साल 2014 में लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा की बड़ी जीत से कहीं अधिक नरेंद्र मोदी की प्रचंड विजय साबित हुए. ‘आडवाणी-शिविर’ के रूप में भाजपा के भीतर नरेंद्र मोदी का जो भी थोड़ा विरोध था, वह दब गया. आडवाणी के साथ दिखे नेता मोदी-रोष का शिकार बने या उन्हें घुटने टेकने पड़े. भाजपा-अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की ताजपोशी के लिए मोदी का एक इशारा काफी था. फिर एक के बाद एक राज्यों में भाजपा की जीत ने मोदी को भाजपा में सर्वशक्तिमान बना दिया.
दिल्ली और बिहार की हार ने कुछ समय को चमक फीकी पड़ने का भ्रम पैदा किया, मगर उत्तरप्रदेश समेत कुछ अन्य राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने से अमित शाह और उनके ‘साहेब’ मोदी की पार्टी पर पकड़ जकड़ में बदल गयी. आज मोदी पार्टी और सरकार में पूरी तरह काबिज हैं और अपनी कार्यशैली में बहुत आक्रामक हैं. वहां किसी दूसरे विचार या लोकतांत्रिक बहस की संभावना नहीं है. यह स्थिति आंतरिक विपक्ष के पनपने के लिए पर्याप्त होती है. आडवाणी ने संभवत: अपनी नियति स्वीकार कर ली है, लेकिन अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा खूब मुखर हैं. पार्टी के भीतर मोदी के अन्य मौन विरोधी नहीं होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता. यह मोदी के नेतृत्व को चुनौती देने से कहीं अधिक उनकी कार्यशैली के प्रति असहमति जताने के लिए है. आश्चर्य ही है कि शौरी व सिन्हा के विरुद्ध अब तक ‘अनुशासनहीनता’ की कार्रवाई नहीं की गयी.
भाजपा का आंतरिक विपक्ष बहुत कुछ गुजरात के चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है. भाजपा की हार (जिसकी संभावना नहीं है), मोदी की चमक फीकी कर देगी. जीत का अंतर कम होने से भी उनकी स्थिति कुछ कमजोर होगी और भीतरी विपक्ष मजबूत होगा. इसलिए मोदी गुजरात में पूरी ताकत लगा रहे हैं. आक्रामक तो वे हैं ही, भावनात्मक तीर भी कम नहीं चला रहे. एक निशाने से दो शिकार करने हैं- बाहरी और भीतरी विपक्ष.
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com

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