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अरब के एजेंडे में फिलिस्तीन नहीं

कमर आगा विदेश मामलों के जानकार बहुत जमाने से अमेरिका यह कोशिश कर रहा था कि येरूशलम को इस्राइलकी राजधानी बनायी जाये. जब भी वहां चुनाव होते थे और जो नेता मैदान में होते थे, वे एक दफा इस बात को जरूर मानते थे कि ऐसा होना चाहिए. इस वक्त अमेरिका यह सबसे मुफीद वक्त […]

कमर आगा
विदेश मामलों के जानकार
बहुत जमाने से अमेरिका यह कोशिश कर रहा था कि येरूशलम को इस्राइलकी राजधानी बनायी जाये. जब भी वहां चुनाव होते थे और जो नेता मैदान में होते थे, वे एक दफा इस बात को जरूर मानते थे कि ऐसा होना चाहिए. इस वक्त अमेरिका यह सबसे मुफीद वक्त लगा, क्योंकि पूरे अरब वर्ल्ड में इस वक्त ही नहीं, एक अरसे से फूट चल रही है और सारे अरब क्षेत्र में अलगाव की स्थिति बनी हुई है. अरब लीग और गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल में भी अलगाव हो गया है. सऊदी अरब एक तरफ है, तो कतर दूसरी तरफ है.
तीसरी तरफ बाकी अरब देश हैं. एक दूसरी बात यह भी है कि एक तरफ सऊदी अरब और यमन में लड़ाई तो चल ही रही है, वहीं दूसरी तरफ सऊदी अरब अपने उत्तराधिकार को लेकर कशमकश में है कि अब अगला किंग कौन बनेगा. मौजूदा किंग अपने बेटे को किंग बनाने की कोशिश में हैं और बहुत से दूसरे महत्वपूर्ण किंग दावेदार सऊदी की जेल में बंद हैं. सऊदी अरब पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण देश है. सऊदी अरब पहले नेतृत्व की भूमिका अदा करता था, जो अब इस स्थिति में नहीं है. इस हालत को देखते हुए अमेरिका को एक मौका मिल गया कि वह येरूशलम को इस्राइलकी राजधानी घोषित कर दे और ट्रंप ने ऐसा कर दिया.
इस वक्त पूरे अरब में आतंक का दौर चल रहा है. ज्यादातर बड़े इस्लामी देश थे, जो इस्राइलके खिलाफ बोलने का दम रखते थे- जैसे सीरिया, इराक, लीबिया, और अन्य अरब देश इस वक्त सिविल वार (गृह युद्ध) की विभीषिका में फंसे हुए हैं. इसी हालात का फायदा उठाकर अमेरिका ने येरूशलम को राजधानी बनाने की घोषणा कर दी.
जहां तक अरब वर्ल्ड में और बाकी वैश्विक राजनीति में इस घटना के असर की बात है, तो मैं समझता हूं कि कुछ खास विरोध नहीं हो पायेगा. बहुत होगा, तो अरब लीग में एक छोटा सा निंदा प्रस्ताव रख दिया जायेगा. इससे ज्यादा कुछ होगा, इसकी संभावना नहीं दिख रही है.
इसकी वजह यह है कि अरबों में बारगेनिंग क्षमता नहीं है कि वे अमेरिका से इस विषय पर कोई सशक्त बात रख सकें. सऊदी अरब हो, पूरा खाड़ी क्षेत्र हो या फिर मिस्र हो, चूंकि सारे बड़े अरब देश सुरक्षा को लेकर अमेरिका पर ही निर्भर हैं, इसलिए वे बारगेनिंग कर रही नहीं पायेंगे.
मिस्र का इस्राइलके साथ शांति समझौता है, तो वह भी कुछ नहीं बोलेगा. जॉर्डन भी ऐसे ही कारणों से इस्राइलसे कोई तकरार नहीं चाहेगा और अपने रिश्तों को बरकरार रखना चाहेगा. हां, अगर कुछ होगा, तो इन देशों के कुछ निंदात्मक बयान आ जायेंगे, ताकि वहां की जनता इस बात को लेकर कोई हंगामा न करने पाये.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि जितने भी इस्लामी मूवमेंट हैं, उनके एजेंडे में फिलिस्तीन कभी नहीं रहा है. हां, अरब नेशनलिस्ट के एजेंडे में फिलिस्तीन था, और वे हमेशा ही फिलिस्तीन के लिए लड़ते भी थे.
लेकिन, चूंकि अब उनका नेशनलिज्म खत्म हो गया है और कट्टर शक्तियां हावी हो गयी हैं, इसलिए यह भी इस्राइलके खिलाफ कभी कोई आवाज नहीं उठाते. दरअसल, सम्मिलित रूप से देखें, तो हालात ऐसे हैं कि इस घटना का पूरे अरब वर्ल्ड पर कोई असर नहीं पड़ेगा. हां, अगर उस पूरे क्षेत्र में लोकतंत्र होता, तो एक संभावना जरूर बनती कि लोग ट्रंप की इस घोषणा के खिलाफ आवाज उठाते.
हालांकि, दो-चार जगहों पर छिटपुट हिंसा हो रही है. लेकिन, यह भी ज्यादा समय तक नहीं रहेगा, क्योंकि इसके लिए एक बड़े अांदोलन की जरूरत है और बड़े आंदोलन के लिए सशक्त नेतृत्व की जरूरत होती है, जो फिलहाल तो दिखायी नहीं दे रहा है. अरबों में कोई नेतृत्व नहीं है इस वक्त. पहले किंग अब्दुल्ला थे, जिनकी चलती थी. लेकिन, नये किंग अपने उत्तराधिकार के लिए अपने बेटे को किंगशिप देना चाहते हैं, जो बगैर अमेरिका के संभव भी नहीं है. ऐसे में कोई नेतृत्व उभरेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम ही दिखती है.
जहां तक खुद फिलिस्तीन की ही बात है, तो वह खुद बंटा-बंटा सा नजर आ रहा है. पिछले छह साल से वहां अभी तक चुनाव नहीं हो पाया है. फिलिस्तीनी प्रेसिडेंट महमूद अब्बास कुर्सी पकड़कर बैठे हुए हैं, वहीं गाजा में हमास भी बंटा हुआ है. इन्हीं सब हालात का फायदा उठाया है अमेरिका ने.
दरअसल, खाड़ी देश और बड़े अरबी देशों के एजेंडे में ईरान है, फिलिस्तीन नहीं. वे सारे मिलकर इस्राइलसे डील भी करते दिखते हैं और सब चाहते हैं कि ईरान से इस्राइलही लड़ाई लड़े और हिजबुल्ला को कमजोर करे. पूरे अरब वर्ल्ड में मुसलमानाें के एजेंडे में कहीं भी फिलिस्तीन है ही नहीं, और एजेंडे से ही यह बात तय होती है कि नेतृत्व कैसा होगा.
अरसा पहले हुए क्रूसेड (धर्मयुद्ध) के बाद से ही यूरोप के ईसाईयों ने येरूशलम से अपना नाता तोड़ लिया था. दरअसल, बारहवीं सदी में ईसाई धर्मयुद्ध इस्लाम से हार गये और तब उन्होंने अपना मक्का रोम और वेटिकन सिटी को बना लिया. इसलिए उनकी दिलचस्पी येरूशलम को लेकर कम ही दिखती है.
हां, इनकी सहानुभूति जरूर है येरूशलम के प्रति, लेकिन न तो प्रोटेस्टेंट वहां जाते हैं और न ही कैथोलिक ही जाते हैं. कुल मिलाकर, जब तक अरब वर्ल्ड एकजुट नहीं होगा, तब तक इस मसले पर बाहर से कोई समर्थन या सहयोग नहीं मिलेगा. जाहिर है, अरब वर्ल्ड में नेतृत्व की दरकार है.

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