मोदी नहीं, मुन्ना भाई में है रुचि
।। वुसतुल्लाह खान।। (बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान) अगर आप खुली आंखों से देखेंगे तो जान लेंगे कि पाकिस्तान से दुश्मनी की फिल्म उत्तरी भारत के अलावा कहीं हिट न हो सकी और भारत से दुश्मनी की फिल्म पाकिस्तानी पंजाब, पाक प्रशासित कश्मीर और कराची के अलावा कहीं कामयाब नहीं हुई. कारण बड़ा सीधा-सादा है कि बंटवारे […]
।। वुसतुल्लाह खान।।
(बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान)
अगर आप खुली आंखों से देखेंगे तो जान लेंगे कि पाकिस्तान से दुश्मनी की फिल्म उत्तरी भारत के अलावा कहीं हिट न हो सकी और भारत से दुश्मनी की फिल्म पाकिस्तानी पंजाब, पाक प्रशासित कश्मीर और कराची के अलावा कहीं कामयाब नहीं हुई. कारण बड़ा सीधा-सादा है कि बंटवारे के बाद पंजाबी और उर्दू बोलने वाले शरणार्थी भारत के उत्तरी इलाकों से पाकिस्तान पहुंचे, जबकि पाकिस्तान से जिन शरणार्थियों ने भारत का रुख किया उनमें से बहुत से उत्तरी राज्यों में जा बसे. अब दोनों देशों में बंटवारे के बाद पैदा होने वाली तीसरी पीढ़ी भी जवानी का जोश गुजार चुकी है इसलिए आपसी दुश्मनी का विषय बड़े पैमाने पर सिकुड़ता हुआ चंद संस्थाओं तक रह गया है.
पाकिस्तान में कुछ भारत-विरोधी जेहादी संगठनों के सिवा राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर जमाते-इस्लामी के अलावा शायद ही कोई बड़ी पार्टी हो जो भारत-विरोधी नीति को आज के जमाने में गंभीरता से लेती हो. इसी तरह भारत में आरएसएस या उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी और उससे नत्थी कुछ संगठनों के अलावा पाकिस्तान से दुश्मनी कांग्रेस सहित किसी और बड़ी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा.
गैर कांग्रेसी सरकारें बेहतर
अगर आप दोनों देशों में ऐसी पार्टियों की राजनीतिक जन्मपत्री जांचें तो अंदाजा होगा कि इन गुटों को ऐसे लोगों का समर्थन ज्यादा मिला जो भारत से उखड़ कर पाकिस्तान और पाकिस्तान से उखड़ कर भारत में बसने पर मजबूर हुए. एक और परिवर्तन यह आया है कि मुंबई, दिल्ली, कराची और फ़ैसलाबाद का पूंजीवादी तबका जो कुछ साल पहले तक अपने-अपने देशों की सरकारों की नीतियों से अलग सोचने के बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता था, आज धड़ल्ले से दोनों देशों के आर्थिक संबंधों के फायदे पर लेक्चर पिलाता है.
क्या नब्बे के दशक तक कोई सोच सकता था कि 14 और 15 अगस्त को सिविल सोसाइटी भारत-पाकिस्तान सीमा पर एक साथ दीये रोशन कर पायेगी या कश्मीर के दोनों हिस्सों के बीच लूला-लंगड़ा ही सही, व्यापार शुरू हो जायेगा. या फिर कोई दिग्गज भारतीय नेता, वह भी हिंदुत्ववादी प्रचारक एलके आडवाणी या जसवंत सिंह जैसा राष्ट्रवादी मोहम्मद अली ज़िन्ना को एक नयी दृष्टि से परखने का खतरा मोल लेकर अपनी पार्टी की सदस्यता को खतरे में डाल लेगा.
इसी संदर्भ में जब नरेंद्र मोदी चुनावी दौड़ में आगे-आगे चल रहे हैं, भारतीय मुसलमानों और भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोगों को इस बारे में जितनी चिंता है, तो शायद पाकिस्तान सरकार, सियासत और मीडिया में इतनी परेशानी नहीं दिखती. क्योंकि कुछ लोगों की नजर में भारत में चाहे कांग्रेस रहे या बीजेपी, पाकिस्तान के बारे में दिल्ली की नीति के बुनियादी उसूल वही रहेंगे- यानी कि कुछ दोस्ती और कुछ दुश्मनी. वहीं बहुत से पाकिस्तानियों का ख्याल है कि जब-जब दिल्ली में गैर-कांग्रेसी सरकारें आयीं, उनके संबंध पाकिस्तान से कुछ बेहतर ही रहे.
‘टेंशन लेने का नहीं,
देने का’
एक ज़माना था कि पाकिस्तान के शहरी इलाकों में भारतीय मुसलमानों के लिए दर्द उठता था और यही हालत दिल्ली, लखनऊ और हैदराबाद के मुसलमान मोहल्लों में भी पाकिस्तान के लिए हुआ करती थी. लेकिन 1971 के बाद से यह जज्बाती बंधन वैसा नहीं रहा. बदले जमाने में भारतीय और पाकिस्तानी मुसलमानों का वैचारिक और भावनात्मक पहचान का तरीका भी बदलता चला गया.
आज के पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए ताजमहल और लाल किले की यादों से ज्यादा यूएई और सऊदी अरब महत्वपूर्ण है. और भारतीय मुसलमान भी मुस्लिम भाईचारे के रोमांस से ऊपर उठ कर दिल की बजाय शायद दिमाग से वोट देना सीख गया है. भारतीय चुनाव का नतीजा क्या निकलता है, इसमें एक आम पाकिस्तानी की रुचि इसलिए भी कम है क्योंकि आजकल खुद उसकी जान-माल और इज्जत-आबरू के लाले पड़े हुए हैं. वह भारत में हिंदुत्व की लहर आने से •यादा यह जानना चाहता है कि अफगानिस्तान से अमेरिका के जाने के बाद पाकिस्तान का अपना वैचारिक और राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठने वाला है.
वैसे भी जो देश खुद धर्म के नाम पर आतंकवाद के लपेट में हो वह पड़ोसियों के घर पर आखिर कितनी देर तक आंखें टिका सकता है? शायद इसीलिए मोदी कुछ अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों और उर्दू लिक्खाड़ों के लिए जरूर पाकिस्तान में एक मुद्दा हैं, लेकिन आम आदमी के लिए मोदी कोई मुद्दा नहीं. फिर भी मोदी अगर अपने चुनाव भाषणों में किसी को पाकिस्तानी एजेंट कह कर ख़ुश होते हैं तो होते रहें. सच तो यह है कि पाकिस्तानियों की रुचि इस वक्त नरेंद्र मोदी के बजाय मुन्नाभाई एमबीबीएस जैसे किरदारों में ज्यादा है- ऐ भाई! टेंशन लेने का नहीं, देने का. (बीबीसी से साभार)
और अंत में..
पाकिस्तान के तानाशाहों के खिलाफ हमेशा डट कर खड़े रहनेवाले, मशहूर अवामी शायर रहे हबीब जालिब की एक रचना :
हरियाली को आंखे तरसें
बगिया लहूलुहान
प्यार के गीत सुनाऊं किसको
शहर हुए वीरान
डसती हैं सूरज की किरनें
चांद जलाए जान
पग-पग मौन के गहरे साये
जीवन मौत समान
चारों ओर हवा फिरती है
लेकर तीर कमान
छलनी हैं कलियों के सीने
खून में लथपथ पात
और न जाने कब तक होगी
अश्कों की बरसात
दुनियावालों कब बीतेंगे
दुख के ये दिन रात
खून से होली खेल रहे हैं
धरती के बलवान
बगिया लहूलुहान।
दो कविताएं दिनेश कुमार शुक्ल की :
लोभ के लाभ के पूंजी के दानव
धरती के साधन सारे चबायें।।
पहाड़ पचायें ये जंगल खायें
नदी नद नाले समुद्र सुखायें।।
विकास के नाम पे फैले विनाश
ये जीवन का रस चूसते जायें।।
चंट चघंट नये ठग पूंजी के
सोडा पिला के गुलाम बनायें।।
खित्त के खित्त गुनीजन चित्त
विचित्र चलंत फिरंत दिखायें।।
पूंजी का कूप अथाह अनंत
ये डूबे सो डूबें ये देस डुबायें।।
नाचते वित्त के लोभ में नित्त
स्वदेश की अस्मिता बेचते जायें।।
भांड़ बने अपसंस्कृति के
कानी कौड़ी में तीन या चार बिकायें।।
भाखा न बूङौं कहो ‘कम टॉमी’
तो पूंछ हिलाते ये दौड़ते आयें।।