परोक्ष प्रतिबद्धता
यह बड़ी विडंबना है कि भारत में जितनी भी स्वायत्त एवं संवैधानिक संस्थाएं हैं, सभी सरकार के पैसे से चलती हैं और इसलिए कहीं-न-कहीं सत्ता के प्रति इनकी परोक्ष प्रतिबद्धता होती है. इन संस्थाओं के जो अधिकारी सत्ता के आगे नहीं झुकते, उनका हाल अशोक खेमका जैसा होता है. अशोक खेमका का 24 साल के […]
यह बड़ी विडंबना है कि भारत में जितनी भी स्वायत्त एवं संवैधानिक संस्थाएं हैं, सभी सरकार के पैसे से चलती हैं और इसलिए कहीं-न-कहीं सत्ता के प्रति इनकी परोक्ष प्रतिबद्धता होती है.
इन संस्थाओं के जो अधिकारी सत्ता के आगे नहीं झुकते, उनका हाल अशोक खेमका जैसा होता है. अशोक खेमका का 24 साल के सेवाकाल में 51 बार तबादला हुआ. इस समय चुनाव आयोग चर्चा में हैं. आरोप लग रहे है कि आयोग सरकार के इशारों पर काम कर रहा है. यह बात सही नहीं भी हो, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी राज्य विधानसभा के चुनाव की तिथि से पहले उसकी मतगणना की तिथि की घोषणा की गयी हो.
शिकायत तो यह भी है कि गुजरात चुनाव में अचार संहिता के उल्लंघन के आरोप सत्ता पक्ष पर भी लगे, मगर कार्रवाई सिर्फ विपक्ष पर लगे आरोपों पर हुई. समग्र रूप में देखें, तो मुझे इन सब में कुछ भी नया नहीं दिखाता. चुनाव आयोग पर लग रहे आरोपों का सच चाहे जो भी हो, स्वायत्त और संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के मामले पहले भी उजागर होते रहे हैं.
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी.