सदन में बहस का गिरता स्तर

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर संसदीय लोकतंत्र में विधायिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. संसद और विधानसभाओं का सबसे अहम काम कानून बनाना है. विधायिका जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वोच्च संस्था है. यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है. संविधान निर्माताओं ने ऐसी परिकल्पना की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 18, 2017 6:30 AM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
संसदीय लोकतंत्र में विधायिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. संसद और विधानसभाओं का सबसे अहम काम कानून बनाना है. विधायिका जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वोच्च संस्था है. यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है.
संविधान निर्माताओं ने ऐसी परिकल्पना की थी कि उसके माध्यम से बने कानूनों द्वारा जनता की अपेक्षाओं को पूरा किया जायेगा. सदन विचार-विमर्श और वाद-विवाद के मंच भी होते हैं. इस मंच का उपयोग सार्थक वाद-विवाद, विचार-विनिमय और जनसमस्याओं के निराकरण के लिए होना चाहिए. लेकिन, ऐसा हो नहीं रहा है. अधिकतर जगह सदन की गरिमा और मर्यादाओं का ख्याल नहीं रखा जा रहा है और कई अवसरों पर तो वह तार-तार होती नजर आ रही है. यह लोकतंत्र के लिए बेहद चिंताजनक पहलू है.
विधानसभाओं के सत्र लगातार छोटे होते जा रहे हैं. विधायक बिना तैयारी के कार्यवाही में हिस्सा लेते हैं. सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि विधेयक बिना किसी बहस और हस्तक्षेप के सदन से पारित हो जाते हैं. विधायक विधायी नियमन का एक तो पालन नहीं करते और बहुत से अवसरों पर उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती. एक और चिंतनीय विषय है कि सदन में अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है.
लोकसभा और राज्यसभा की स्थिति थोड़ीबेहतर है. लेकिन, ऐसे भी मौके आये हैं कि इनका भी पूरा का पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया और कोई विधायी कार्य नहीं हुआ. सदनों की कार्यवाही सुचारु रूप से चले और विधायी कार्य हों, यह लोकतंत्र और हम और आप सबके लिए आवश्यक है.
इसके संचालन में जो भारी-भरकम खर्च आता है, वह भी हमारे आपके टैक्स के भुगतान से किया जाता है. एक और महत्वपूर्ण बात है कि सदन की कार्यवाही चलाने की जितनी जिम्मेदारी और जवाबदेही सरकार की है, उतनी ही विपक्ष की भी है. दुर्भाग्य यह है कि अब यह मान लिया गया है किसी बात को रखने का सबसे अच्छा और प्रभावी तरीका हंगामा करना है. लेकिन यह सही नहीं है. ऐसा भी देखने में आया है कि हमारे कई माननियों को विधायी कार्य की जानकारी ही नहीं होती, न ही उनकी दिलचस्पी इसे सीखने में होती है.
हाल में उपराष्ट्रपति एम वैंकेया नायडू ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा कि संसद और विधानसभाओं में मुठ्ठी भर सदस्यों के हंगामे से सदन की कार्यवाही बाधित होने के कारण जनता की नजरों में विधायिका का सम्मान कम हुआ है. उपराष्ट्रपति ने कहा कि संसद की अच्छी बहस सरकार को हिला देती है और जनता और मीडिया की संकल्पनाओं को जगा देती है.
उपराष्ट्रपति ने विधायिका में मुद्दों पर व्यापक परिप्रेक्ष्य में चर्चा और फैसला करने का मकसदपूरा करने के लिए कुछ सुझाव भी दिये. इनमें विधायिका के महत्व का आकलन, राज्य विधायिकाओं की रैंकिंग, विधायिका के सदस्यों के आचरण और योगदान सुनिश्चित करने वाले मानक तय करना, विपक्षी दलों के सदस्यों का कोरम तय करना, कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने वाले सदस्यों की पहचान, सदस्यों का स्वत: निलंबन, सदस्यों का जनता के साथ मेलजोल बढ़ाना और नियमों का पालन सुनिश्चित करना शामिल है. उपराष्ट्रपति के सभी सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
विधानसभाओं की स्थिति कैसी है? हाल के दिनों के उनके सत्रों पर नजर डाल लेते हैं, जिससे आपको अंदाजा लग जायेगा. झारखंड से ही शुरुआत करते हैं. विधानसभा का शीतकालीन सत्र महज चार दिन का था. पहले दिन शोक प्रस्ताव के बाद सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी गयी.
हंगामे के कारण अगले तीन दिनों में प्रश्नोत्तरकाल, शून्यकाल और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर कोई सवाल-जवाब नहीं हो सका. हालांकि इस दौरान अनुपूरक बजट को मंजूरी मिली. स्पीकर दिनेश उरांव ने अपने समापन भाषण में कहा कि चार दिनों के इस सत्र में तीन दिनों की कार्यवाही का अधिकांश हिस्सा व्यवधान और रुकावटों में गुजरा.
उनके मुताबिक इस अवधि में कुल स्वीकृत 258 प्रश्नों में से एक का भी मौखिक उत्तर सदन में नहीं हो सका, हालांकि इनमें से कुल 219 प्रश्नों का लिखित उत्तर विधानसभा सचिवालय को प्राप्त हुए. लेकिन, किसी एक पर सरकार का वक्तव्य सदन में नहीं हो सका. यह स्थिति झारखंड की सवा तीन करोड़ जनता के लिए चिंताजनक है. खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास विपक्ष को लेकर दिये वक्तव्य में संसदीय मर्यादा को लांघ गये.
दिल्ली विधानसभा के कुछ दिनों पहले आयोजित सत्र में जमकर हंगामा हुआ था. यहां तक कि विधायकों के बीच जमकर मारपीट हुई थी.
हंगामा इस कदर हुआ कि स्पीकर ने आप के दो सदस्यों को 30 दिनों के लिए जेल भेजने का आदेश दे दिया. इन दोनों पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और एक अन्य मंत्री के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए दर्शक दीर्घा से पर्चे उछालने का आरोप था. पंजाब विधानसभा में आप और शिरोमणि अकाली दल के विधायकों को सदन से बाहर निकालने के अध्यक्ष के आदेश के बाद विधायकों व सुरक्षाकर्मियों में झड़प हो गयी. धक्का-मुक्की में आप की महिला विधायक सरबजीत मनुके बेहोश हो गयीं. उत्तर प्रदेश विधानसभा का सत्र चल रहा है और हंगामा हो रहा है.
वहां अनुपूरक बजट पारित होना है. शिक्षा में बदलाव पर चर्चा और बच्चों को जूते-मोजे देने का प्रस्ताव पारित होना है. किसानों को सस्ती कीमत पर खाद के बारे में सरकार जानकारी देना चाेह रही है. लेकिन पिछलेकुछ दिनों से लगातार हंगामा हो रहा है. उत्तराखंड में शीतकालीन सत्र दो दिनों तक चलने के बाद अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया.
सत्र के दूसरे दिन अनुपूरक बजट विधेयक समेत दस विधेयक पारित कर दिये गये. ओड़िशा विधानसभा में विपक्षी कांग्रेस और भाजपा के सदस्यों के महानदी एवं किसानों के मुद्दों पर हंगामा करने के कारण कार्यवाही बार-बार स्थगित हुई. विधानसभा अध्यक्ष ने हंगामे के बीच ही 39 विभागों का पूरक बजट पारित करवा दिया. मध्यप्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र के तहत सदन की कार्यवाही तय समय से चार दिन पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गयी.
विपक्ष की अनुपस्थिति में तीन विधेयक पारित कर दिये गये और फसलों के नष्ट होने के विषय पर भी चर्चा हो गयी.इन सबसे आप स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं. मेरा मानना है कि इस स्थिति के लिए कोई एक पक्ष दोषी नहीं है. जब तक सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर प्रयास नहीं करते, सदन सुचारू रूप से चलने वाला नहीं है. लोकतंत्र के लिए मौजूदा स्थिति चिंताजनक है.

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