असली लड़ाई तो अब शुरू हुई

पवन के वर्मा पूर्व प्रशासक एवं लेखक गुजरात तथा हिमाचल में जीत चुकी भाजपा बधाई की हकदार है. एक हद तक, ये परिणाम अनपेक्षित नहीं थे. हिमाचल प्रदेश में तो मतदाता हमेशा भाजपा एवं कांग्रेस को बारी-बारी से चुनते रहे हैं. अब तक यहां की सत्ता कांग्रेस के हाथों में थी. इस तरह, हिमाचल प्रदेश […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 20, 2017 1:06 AM
पवन के वर्मा
पूर्व प्रशासक एवं लेखक
गुजरात तथा हिमाचल में जीत चुकी भाजपा बधाई की हकदार है. एक हद तक, ये परिणाम अनपेक्षित नहीं थे. हिमाचल प्रदेश में तो मतदाता हमेशा भाजपा एवं कांग्रेस को बारी-बारी से चुनते रहे हैं.
अब तक यहां की सत्ता कांग्रेस के हाथों में थी. इस तरह, हिमाचल प्रदेश में स्थापित इस रुझान के मुताबिक इस बार भाजपा को आना ही था. वहां कांग्रेस के चुनाव अभियान की कमान 83 वर्षीय वीरभद्र सिंह के हाथों में देना कांग्रेस के लिए हितकारी सिद्ध न हुआ. दूसरी ओर, भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल के स्वयं हार जाने से भाजपा की भी भद्द पिटी.
दरअसल, इन चुनावों में देश की दिलचस्पी के केंद्र में तो लगातार गुजरात ही बना रहा. नतीजों के हिसाब से वहां भाजपा का हाथ ऊपर रहा, मगर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के इस अभेद्य जैसे समझे जानेवाले राज्य में अपनी उपस्थिति मजबूत तो कर ही ली.
भाजपा की जीत तो हुई, पर पिछली दफा से कम सीटों के साथ और कांग्रेस की हार तो हुई, मगर सीटों में बढ़ोतरी के साथ. 99 सीटें लेकर भाजपा को 17 सीटों का नुकसान हुआ, जबकि 80 सीटें जीतकर कांग्रेस 19 सीटों के फायदे में रही. भाजपा के मत प्रतिशत में मामूली वृद्धि हुई, जबकि कांग्रेस के लिए यह छह प्रतिशत की खासी ऊंची रही.
गुजरात चुनाव से निकल कर तीन मुख्य तथ्य सामने आये. पहला, अपनी जीत के बावजूद भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी. इस चुनौती के मुकाबले के लिए उसने कुछ भी उठा न रखा, क्योंकि प्रधानमंत्री के गृहराज्य में ही उसकी हार अथवा दुर्गति के दूरगामी परिणाम होते.
पार्टी ने राज्य में दो दर्जन से ऊपर केंद्रीय मंत्री उतार दिये, खुद प्रधानमंत्री ने अनगिनत रैलियां कीं, जीत की जरूरत के मद्देनजर संसद का सत्र भी स्थगित कर दिया गया. इससे भी अधिक अहम यह रहा कि विकास की सारी चर्चा छोड़ अपने चुनाव अभियान को उसने धार्मिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित कर डाला. कांग्रेस पर खिलजी की औलाद, औरंगजेब, बाबर भक्त जैसे ठप्पे लगाये गये, वहीं हार्दिक, अल्पेश तथा जिग्नेश की तिकड़ी को हज का सांकेतिक नाम दिया गया.
प्रधानमंत्री ने स्वयं ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी तथा पूर्व सेना प्रमुख, जनरल दीपक कपूर के अलावा कई विशिष्ट भारतीय राजनयिकों पर गुजरात में भाजपा की हार के लिए पाकिस्तान से सांठगांठ के आरोप मढ़ दिये. यहां तक कि कांग्रेस की जीत पर अहमद पटेल के मुख्यमंत्री बनने के परोक्ष संकेत तक दिये गये. 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों के वक्त अमित शाह ने कहा था कि यदि महागठबंधन जीती, तो आतिशबाजियों से जश्न पाकिस्तान में मनेगा!
दूसरा, आशा के विपरीत, कांग्रेस ने जोरदार संघर्ष किया, जिसके केंद्र में स्वयं राहुल गांधी रहे. उनके अभियान की रणनीति में कई नये आयाम जुड़े. उन पर किये गये व्यक्तिगत आक्रमणों के विपरीत, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के विरुद्ध किसी भी असम्मानजनक शब्द का प्रयोग नहीं किया जायेगा. उन्होंने अभिमान पर विनम्रता का चयन किया.
यदि एक ट्वीट में उन्होंने त्रुटिपूर्ण आंकड़ों का उपयोग किया भी, तो तुरंत ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया कि गलती करना मानवीय चरित्र का हिस्सा है. मंदिरों में माथे टेक उन्होंने कांग्रेस की पुरानी गलती भी सुधारी, जिस वजह से उस पर अल्पसंख्यकों की तुष्टीकरण के आरोप निरंतर लगते रहे. पर, ऐसा करते वक्त भी उन्होंने सभी संप्रदायों के सम्मान की जरूरत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से कोई समझौता नहीं किया.
भाजपा द्वारा धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशों के विपरीत राहुल ने सामान्य गुजरातियों को चुभते मुद्दे उठाये, जैसे नोटबंदी और एक बुरी तरह क्रियान्वित जीएसटी के नतीजे, रोजगारविहीन विकास, दलितों के साथ बुरा बरताव तथा कृषि संकट, जो सभी क्रोध और असंतोष की वजह बने थे.
इसके साथ ही, उन्होंने यह भी साबित किया कि जरूरी होने पर वे तेज तथा निर्णायक कार्रवाई करने में भी सक्षम हैं. प्रधानमंत्री के विरुद्ध अनुचित भाषा के प्रयोग पर उन्होंने कुछ घंटों के भीतर मणिशंकर अय्यर को माफी मांगने को कहा और उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया. दोनों राज्यों के चुनावी नतीजों की प्रतीक्षा किये बगैर कांग्रेस में नये अध्यक्ष की नियुक्ति में भी यही निर्णय क्षमता प्रदर्शित हुई.
इन चुनावों का तीसरा तथ्य यह रहा कि चुनाव आयोग में निष्पक्षता का स्पष्ट अभाव दिखा. इस प्रश्न का कोई भी विश्वसनीय उत्तर नहीं है कि गुजरात में आदर्श आचार संहिता लागू करने में उसने एक हफ्ते की देर आखिर क्यों की, जबकि इसका उद्देश्य सिर्फ यही प्रकट होता था कि प्रधानमंत्री द्वारा गुजरात के लिए कई लुभावनी घोषणाएं करना संभव हो सके.
प्रथम चरण के चुनाव प्रचार के पश्चात राहुल गांधी द्वारा एक टीवी चैनल को इंटरव्यू देने पर चुनाव आयोग द्वारा नोटिस जारी की गयी, जबकि अमित शाह द्वारा हवाईअड्डे जैसे सरकारी स्थल से ऐसे ही एक इंटरव्यू पर कोई भी कार्रवाई न की गयी. प्रधानमंत्री ने अपना मत देने के बाद एक रोडशो भी किया, पर चुनाव आयोग मौन रहा, जबकि 2014 में अपना मत देने के बाद भाजपा के चुनावचिह्न के साथ एक सेल्फी लेने पर उन्हें नोटिस जारी की गयी थी. एक निष्पक्ष निकाय के रूप में चुनाव आयोग का काफी सम्मान रहा है, पर यदि वह पक्षपात करता दिखेगा, तो यह हमारे देश में लोकतंत्र के लिए बहुत बुरा होगा.
साल 2019 के चुनावी नतीजे अभी दूर की कौड़ी हैं. औद्योगिक उत्पादन 2.2 प्रतिशत की विकास दर तक नीचे आ चुका है, जबकि विनिर्माण और कृषि के लिए यह क्रमशः 2.5 फीसद तथा 1.7 फीसद है.
केवल इसी माह मुद्रास्फीति 3.6 प्रतिशत से बढ़कर 4.9 प्रतिशत तक पहुंच गयी है, वहीं अकेले सब्जियों की कीमतों में 22 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इस तिमाही निजी पूंजी निवेश पिछले दस वर्षों में निम्नतम रहा है. रोजगार दुर्लभ हैं और किसान अभी भी आत्महत्याएं करते जा रहे हैं. इसके अलावा, धार्मिक कट्टरता की वजह से हम क्षेत्रीय सामाजिक अस्थिरता के संकट से जूझ ही रहे हैं.
अंततः लोग अपने जीवन से जुड़े मुद्दों पर ही वोट देते हैं, न कि भाषणकला या वादों पर. भाजपा को इन पहलुओं पर आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. वहीं, विपक्ष को 2019 के दिलचस्प-से लगते चुनावों के लिए कमर कस लेनी चाहिए. असली लड़ाई अब शुरू हुई है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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