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अरब जगत : युद्ध का रंगमंच
डॉ फज्जुर रहमान सिद्दीकी रिसर्च फेलो, आइसीडब्ल्यूए बीते करीब सात सालों से अरब का इलाका अलग-अलग संघर्षों में उलझा हुआ है. साल 2011 के अरब विद्रोहों के शुरुआती दिनों में सीरिया और लीबिया, फिर इराक और इस्लामिक स्टेट का उद्भव ऐसे मसले बने जो वैश्विक राजनीति के केंद्र में रहे तथा इनमें ईरान और सऊदी […]
डॉ फज्जुर रहमान सिद्दीकी
रिसर्च फेलो, आइसीडब्ल्यूए
बीते करीब सात सालों से अरब का इलाका अलग-अलग संघर्षों में उलझा हुआ है. साल 2011 के अरब विद्रोहों के शुरुआती दिनों में सीरिया और लीबिया, फिर इराक और इस्लामिक स्टेट का उद्भव ऐसे मसले बने जो वैश्विक राजनीति के केंद्र में रहे तथा इनमें ईरान और सऊदी अरब जैसे चिर-प्रतिद्वंद्वी देशों के अलावा अन्य अरबी देश भी शामिल हुए.
इन सभी देशों ने अपनी रणनीतिक, आर्थिक, सैन्य और कूटनीतिक क्षमता को अपने हितों को साधने के लिए झोंक दिया. अभी इस्लामिक स्टेट की लगभग हार तथा सीरिया में होनेवाली रोजाना मौतों की संख्या में कमी के अलावा ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है, जिसे इस क्षेत्र के लिए बेहतर कहा जा सके. तमाम वैश्विक और क्षेत्रीय कूटनीतिक कोशिशें अपेक्षानुरूप कामयाबी नहीं पा सकी हैं तथा सीरिया या लीबिया में विरोधी पक्षों को बातचीत के लिए राजी नहीं कर सकी हैं. सभी पक्ष अभी भी अपनी बंदूकें ताने हुए हैं.
जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय युद्ध से त्रस्त इस क्षेत्र में सामान्य स्थिति बहाल करने का प्रयास कर रहा है, एक नया और गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है.
आज हम यमन में एक पूर्ण युद्ध होता हुआ देख रहे हैं, लेबनान में हालत खराब होने से फिलहाल रोक लिया गया है और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जेरूसलम को इजरायल की राजधानी घोषित करने और अमेरिकी दूतावास को वहां ले जाने के बयान से पैदा हुई स्थिति भी चिंताजनक है.
ईरान-समर्थित हौथी ताकत को हराने के लिए हजार दिनों के सऊदी-नीत युद्ध पर कुछ ने मातम किया है, तो कुछ ने इसका स्वागत किया है. हौथी लड़ाके राजधानी सना और बड़े बंदरगाहों वाले शहरों समेत यमन के बड़े हिस्से पर काबिज हैं. बीते हफ्तों में इस युद्ध ने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला सालेह की हत्या के बाद नया मोड़ लिया है.
यह हत्या हौथी लड़ाकों ने इसलिए कि सालेह उनसे नाता तोड़कर सऊदी खेमे से जुड़ गये थे, जिसके खिलाफ उन्होंने 2014 में हौथी समुदाय से हाथ मिलाया था. हजार दिन के युद्ध का उत्सव मनाने के लिए हौथी लड़ाकों ने एक बैलेस्टिक मिसाइल 20 दिसंबर को सऊदी राजधानी स्थित शाही महल की ओर दाग दिया. हालांकि, सऊदी रक्षा बलों ने इस हमले को नाकाम कर दिया. सऊदी अरब की ओर मिसाइलें दाग कर हौथी लगातार अपनी बढ़ती सैन्य क्षमता का प्रदर्शन कर रहे हैं.
यह उल्लेखनीय है कि नवंबर में भी हौथी लड़ाकों ने रियाद हवाई अड्डे की ओर मिसाइल दागा था, जिसे अमेरिकी तकनीक से लैस सऊदी मिसाइल-रोधी तंत्र ने विफल कर दिया था.
तीन सालों के इस युद्ध में हौथी लड़ाकों ने 81 मिसाइल हमले सऊदी अरब पर किये हैं और निशानों में मक्का, जिजान और जेद्दा जैसे शहर भी शामिल हैं. सीरिया में स्थिरता के कुछ संकेतों के बीच वैचारिक और रणनीतिक रूप से पुराने प्रतिद्वंद्वियों- ईरान और सऊदी- के बीच लड़ाई अब यमन में केंद्रित होती दिख रही है. हालांकि, सीरिया में सीधा मुकाबला रूसी हस्तक्षेप के कारण टल गया और दोनों पक्ष अपने-अपने समर्थक समूहों की भूमिका से संतुष्ट हो गये.
बिगड़ती स्थिति को देखते हुए- जिस तरह सऊदी-नीत गठबंधन लगातार युद्ध में है और ईरान की मौजूदगी बढ़ रही है- इसकी आशंका बढ़ रही है कि यमन या इस इलाके में कहीं और सऊदी अरब और ईरान के बीच सीधा संघर्ष हो सकता है. अरब में कोई युद्ध या अनिश्चितता का असर सिर्फ इलाके तक ही सीमित नहीं रह सकता है और इसके गंभीर परिणाम भारत पर भी हो सकते हैं.
लाल सागर में हौथी ताकत और अमेरिकी सेना की मौजूदगी तथा बड़े युद्ध की आशंका इस रास्ते से गुजरनेवाले व्यापार और तेल के जहाजों के लिए खतरा हैं, खासकर बाब अल-मंदब के लिए, जो सबसे व्यस्त व्यापारिक रास्ता है.
भारत इस इलाके से अपने तेल और गैस के आयात का बड़ा हिस्सा लेता है और किसी बड़े युद्ध का असर स्वाभाविक रूप से इस आपूर्ति पर पड़ेगा. हम इस बात से भी आगाह हैं कि इस्लामिक स्टेट के पतन के बाद इलाके में एक खालीपन पैदा हुआ है और कई देश नाजुक हालत में हैं, इस लिहाज से भारत मौजूदा स्थिति से मुंह मोड़कर नहीं बैठ सकता है.
उस इलाके में किसी भी युद्ध से अल-कायदा या पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय अल-कायदा को और सक्रिय कर सकता है, जिसका सीधा असर भारत की सुरक्षा पर पड़ेगा. अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के बढ़ते प्रभाव की रिपोर्ट हमारे सामने है. निःसंदेह युद्ध या संघर्ष का असर खाड़ी देशों में कार्यरत अस्सी लाख भारतीय प्रवासियों की अर्थव्यवस्था पर भी होगा, जो हर साल करीब 40 बिलियन डॉलर कमाकर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में योगदान देते हैं.
अरब में संघर्षों की शुरुआत से ही शिया-सुन्नी सांप्रदायिकता की छाप है और लड़ाइयों के गहराते जाने के साथ ये भेद भी बढ़ता ही जायेगा तथा भारत के मुस्लिम समुदाय के सामाजिक ताने-बाने पर भी इसका सीधा असर होगा.
रणनीतिक परिदृश्य में तेज बदलाव तथा गठबंधनों के बनने-टूटने के सिलसिले को देखते हुए भारत को ऊर्जा और सुरक्षा से जुड़ी अपनी नीतियों को पुख्ता करना होगा, क्योंकि अरब में आगामी महीनों-सालों में संकट गहरा सकता है. यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि भारत के आर्थिक और सुरक्षा-संबंधी पहलू उस इलाके की घटनाओं और क्षेत्रीय राजनीति से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं.
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