कुछ फैसले दिल पर भी छोड़ें
पिछले दिनों आपके अखबार में ‘हेल्दी लाइफ’ पत्रिका में छपा एक लेख आज के सभ्य और सुशिक्षित समाज के बारे मे आंखें खोलने वाला था. इसमें उनकी सोच पर चोट की गयी है जो सोचते हैं कि घर मे एक नौकर रखने की तुलना में अपने बुजुर्ग माता-पिता को रखना कितना लाभप्रद है. वे ज्यादा […]
पिछले दिनों आपके अखबार में ‘हेल्दी लाइफ’ पत्रिका में छपा एक लेख आज के सभ्य और सुशिक्षित समाज के बारे मे आंखें खोलने वाला था. इसमें उनकी सोच पर चोट की गयी है जो सोचते हैं कि घर मे एक नौकर रखने की तुलना में अपने बुजुर्ग माता-पिता को रखना कितना लाभप्रद है. वे ज्यादा विश्वासपात्र होंगे और छोटे बच्चों को अच्छे संस्कार देंगे. कामकाजी बेटे-बहू उनकी देख-रेख मे बच्चों को छोड़ कर घूम-फिर सकते हैं.
जो बात अधूरी रह गयी वो ये कि वे कोई नखरे नही करेंगे और उन्हें पैसे भी नहीं देने पड़ेंगे. शर्म आती है ऐसी सोच पर कि अपने माता-पिता को साथ रखने से पहले हम उसके लाभ-हानि पर विचार करें. हमारा समाज किधर जा रहा है?
क्यों लोग जरूरत से ज्यादा व्यावहारिक होते जा रहे हैं? सच्चाई तो ये है कि बहुत से बुजुर्गो को बच्चों जैसी देखभाल चाहिए होती है. ठीक छोटे बच्चों की तरह हर रोज नित्यकर्म से लेकर कई कामों में वे असहाय होते हैं. उनके बारे में आपका क्या कहना है? क्या उन्हें घर से निकाल दें? माता-पिता का साथ खुशकिस्मती से मिलता है. दुख होता है जब माता-पिता के संबंध को भी तराजू पर तौला जा रहा है. अजीब बात यह है कि अपने घर में पालतू कुत्तों की सेवा करना एक स्टेटस सिंबल है, जबकि अपने बुजुर्गो की सेवा के लिए समय नहीं है. बच्चों के साथ रहना और जीवन की सांध्यवेला का आनंद उठना उनका हक है.
आखिर क्यों बच्चों के साथ वे घूमने न जाकर घर और बच्चों की चौकीदारी करेंगे? युवाओं और बच्चों के लिए वीकेंड पर मस्ती करना जरूरी है और जो बुजुर्ग सारी जिंदगी जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं, उनके लिए क्या कोई छुट्टी का दिन नहीं हो? अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि कृपया कुछ निर्णय दिल पर भी छोड़ दें.
राजन सिंह, जमशेदपुर