पूरी दुनिया में भारत की सड़कें सबसे ज्यादा जानलेवा हैं. हर साल हमारे यहां सवा लाख से ज्यादा लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं. यह संख्या साल दर साल बढ़ ही रही है. एक अनुमान के मुताबिक, अगर यही गति रही तो 2020 तक भारत में हर तीन मिनट में एक इनसान की मौत सड़क हादसे में होगी. 2013 में अकेले झारखंड में सड़क हादसों में 381 लोगों की मौत हुई और 513 घायल हुए.
अधिकतर मौतें वक्त पर इलाज न हो पाने की वजह से हुईं. डाक्टरों का मानना है कि सड़क हादसे के बाद पहला घंटा सबसे अहम होता है. अगर एक घंटे के अंदर इलाज की सुविधा मिल जाये तो जख्मी व्यक्ति की जिंदगी बचने की काफी उम्मीद होती है. इसीलिए, इस पहले घंटे को ‘सुनहरा समय’ (गोल्डन आवर) नाम दिया गया है. सड़क हादसे के घायलों को एक घंटे के अंदर अस्पताल पहुंचा दिया जाये, इसके लिए एक फरवरी को झारखंड सरकार ने ‘सुनहरा समय प्रणाली’ की शुरुआत की जिसका उद्घाटन रांची में खुद मुख्यमंत्री ने किया था.
लेकिन बदकिस्मती है कि यह प्रणाली शुरू हुए अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं और यह फेल हो गयी है. हादसे की जगह पर वक्त पर एंबुलेंस नहीं पहुंच पा रही है जिसकी वजह से घायलों की मौत हो रही है. उन लोगों की जान जा रही है जिनकी मौत टाली जा सकती है. इस प्रणाली में केंद्रीय भूमिका पुलिस नियंत्रण कक्ष की है. उसके पास चिह्न्ति अस्पतालों की सूची है. उसे मौके से नजदीक के अस्पताल को फोन करना है. और, उस अस्पताल को एंबुलेंस भेजनी है. यह प्रणाली बेहद सरल और कारगर लगती है.
लेकिन इसे लागू करने में हमारा सरकारी तंत्र विफल हो गया है. राजधानी रांची के बाद इसे हजारीबाग, धनबाद और जमशेदुपर में लागू किया जाना था. फिर पूरे झारखंड में. लेकिन जब राजधानी में ही यह प्रणाली खस्ताहाल है, तो दूसरी जगहों पर क्या उम्मीद की जाये? अपने देश की असल समस्या यही है. हम अच्छी योजनाएं बना लेते हैं, पर उन्हें जमीन पर नहीं उतार पाते हैं. हमारी मंसूबाबंदी कितनी ही अच्छी हो, अगर उसे अमली जामा पहनाने का मजबूत इरादा नहीं है, तो उसे ख्याली पुलाव पकाना ही कहा जायेगा. और जगह तो लापरवाही है ही, पर कम से कम इनसानी जिंदगी की तो कीमत समझें!