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समाधान नहीं, संकट की आशंका

प्रसेनजीत बोस अर्थशास्त्री मार्च 2014 यानी वर्तमान केंद्रीय सरकार के सत्ता में आने से पूर्व देश के अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की गैर उत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) का कुल योग 2.6 लाख करोड़ रुपये था. इसमें से 2.4 लाख करोड़ रुपयों के डूबत ऋणों को उदारतापूर्वक माफ किये जाने के बाद भी, मार्च 2017 तक यह कुल […]

प्रसेनजीत बोस
अर्थशास्त्री
मार्च 2014 यानी वर्तमान केंद्रीय सरकार के सत्ता में आने से पूर्व देश के अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की गैर उत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) का कुल योग 2.6 लाख करोड़ रुपये था. इसमें से 2.4 लाख करोड़ रुपयों के डूबत ऋणों को उदारतापूर्वक माफ किये जाने के बाद भी, मार्च 2017 तक यह कुल योग बढ़कर लगभग 8 लाख करोड़ रुपयों तक पहुंच गया.
एक बार जब यह मालूम हो जाये कि इस रकम का 80 प्रतिशत बड़े ऋणधारकों की वजह से है और उनमें से भी शीर्ष एक सौ के पास इस कुल योग का 25 प्रतिशत बकाया है, तो भारत की वित्तीय व्यवस्था को लगे इस रोग की गंभीरता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है. पिछले दशक में हुई तेज आर्थिक तरक्की के दौर में निजी कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए बैंक ऋणों की सुलभता में भी भारी बढ़ोतरी हुई. पर 2011-12 में जैसे ही यह तेज रफ्तार थमी कि कॉरपोरेट क्षेत्र का घाटा इन बैंकों के माथे उतर गया.
विजय माल्या जैसे दिवालिया ऋणधारक तो बचे फिर रहे हैं, पर कई सार्वजनिक बैंक घाटे का सामना कर रहे हैं. वित्त मंत्रालय का कहना है कि हाल ही में पारित दिवाला व शोधन अक्षमता संहिता तथा प्रस्तावित वित्तीय समाधान तथा जमा बीमा (एफआरडीआई) विधेयक 2017 के द्वारा देश की दिवाला एवं समाधान प्रणाली में सुधार के द्वारा उसके पास इस समस्या का समाधान मौजूद है.
हालांकि, गैर-वित्तीय कॉरपोरेट क्षेत्र के डूबते ऋणों के समाधान में भारतीय दिवाला व शोधन अक्षमता बोर्ड (आइबीबीआई) की प्रभावशीलता की जांच किया जाना अभी बाकी है, इसी बीच एफआरडीआई बिल के द्वारा ‘समाधान निगम’ के नाम से एक शक्तिशाली वित्तीय समाधान प्राधिकार की स्थापना का प्रस्ताव सामने आ गया, जिसका काम पूरे वित्तीय परिदृश्य के किसी भी हिस्से से संबद्ध सेवा प्रदायकों की विफलता के समाधान निकलना होगा.
इन दोनों विधायी पहलों में एक बुनियादी भिन्नता है. आइबीबीआई को एक ऐसे वक्त लाया गया है, जब निजी कॉरपोरेट क्षेत्र द्वारा ऋण वापसी की चूकें न केवल अपनी हदें बहुत पहले पार कर चुकी थीं, बल्कि वृहत आर्थिक स्तर पर साख की मांग और आपूर्ति पर भी उनका दुष्प्रभाव नजर आने लगा था. दूसरी ओर, एनपीए के बढ़ने अथवा उनकी वसूली में रिजर्व बैंक के विनियामक कदमों के भी विफल सिद्ध होते जाने की वजह से एक नये संस्थागत तंत्र की जरूरत आ पड़ी थी.
इसके विपरीत, एफआरडीआई बिल का लक्ष्य एक ऐसी नयी विनियामक व्यवस्था की स्थापना है, जो किसी बैंकिंग या वित्तीय संकट को फैलने से रोकने हेतु विफल होते वित्तीय संस्थानों की सुचारु परिसमाप्ति सुनिश्चित करते हुए उसके संक्रामक असर से वृहत्तर वित्तीय व्यवस्था का बचाव करेगी. पर ऐसा मानने की कई वजहें हैं कि इस नये विधेयक द्वारा प्रस्तावित नयी वित्तीय समाधान व्यवस्था समाधान की बजाय कई अन्य कठिनाइयां ही पैदा करेगी.
वित्तीय समाधान हेतु ऐसा समाधान निगम जी20 के तत्वावधान में गठित वित्तीय स्थिरता बोर्ड द्वारा विकसित एक ढांचा है. दरअसल ये समाधान सुधार बाजल-3 बैंकिंग विनियमन सुधार के पूरक हैं और ये यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भविष्य में अत्यंत विशाल बैंकों तथा वित्तीय संस्थानों के विफल होने से संबद्ध नैतिक खतरों को देखते हुए 2007-08 के संकट के समय राजकीय निधि से उनके लिए ‘बेल आउट’ पैकेजों के जैसी जरूरत को रोका जा सके.
विडंबना यह है कि एफआरडीआई बिल भारत में सार्वजनिक बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों से संबद्ध संकटों के समाधान में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सरकारी गारंटी को भी घटाता है. यह इस दिशा में सरकार तथा रिजर्व बैंक की शक्तियां लेकर उन्हें समाधान निगम को देने का प्रस्ताव करता है, जो गैर-बीमित जमा राशियों तथा अन्य ऋण देनदारियों को एक्विटी जैसे साधनों में तब्दील कर विफल होते निकाय का पुनर्पूंजीकरण अथवा उनकी परिसमाप्ति सुनिश्चित करेगा. इस प्रस्ताव ने अभी ही बैंक के जमाधारकों में बेचैनी पैदा कर दी है और यदि यह पारित हो गया, तो इसके नतीजे में सार्वजनिक बैंकों से जमा राशियों की निकासी शुरू होने के द्वारा वित्तीय अस्थिरता भी आरंभ हो सकती है.
जी20 की ज्यादातर उभरती अर्थव्यवस्थाएं ऐसी किसी व्यवस्था की स्थापना से बचती रही हैं. रिजर्व बैंक को दी गयी वित्तीय स्थिरता कायम रखने की जिम्मेदारी के मद्देनजर समाधान निगम एवं रिजर्व बैंक के दरम्यान संकटग्रस्त वित्तीय निकायों के जोखिम-आकलन और उनके समाधान के तौर-तरीकों तथा साधनों को लेकर मतभेद भी उत्पन्न हो सकते हैं.
इसके अलावा, जमा राशियों की बीमा-सीमा को लेकर प्रस्तावित बिल के अंतर्गत छोड़ी गयी अनिश्चितता ने भी चिंता की वजहें दे दी हैं. प्रति जमाधारक एक लाख रुपये की अधिकतम बीमा-सीमा 1993 में तय हुई थी, जबकि चीन में यह सीमा हमारे 50 लाख रुपयों के बराबर तथा ब्राजील और रूस में क्रमशः 40 लाख एवं 12 लाख रुपयों की बराबरी में है.
भारत में भी इसे 10 लाख रुपये तो होना ही चाहिए. वैसे बेहतर यह होता कि सरकार कोई ऐसी व्यवस्था की सोचती, जो भारतीय वित्तीय संरचना तथा परिस्थितियों के लिए ज्यादा फायदेमंद होती.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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