।। राजेंद्र तिवारी।।
( कारपोरेट एडिटर, प्रभात खबर)
प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब आने के बाद से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार चर्चा में हैं. इस किताब से जो बातें सामने आयी हैं, वे यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी की कठपुतली ही थे. मैंने भी यह किताब पढ़ी. मेरी रुचि यह जानने में थी कि क्या कभी मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी मजबूत छवि बनाने की कोशिश भी की या नहीं. अब तक मीडिया में जो आया है उससे तो यही लगता है कि मनमोहन सिंह बिना रीढ़ के प्रधानमंत्री थे. लेकिन संजय बारू की किताब में कई ऐसे वाकये हैं जिनसे यह लगता है कि मनमोहन सिंह एक मजबूत छवि बनाना जरूर चाहते थे.
संजय बारू ने जुलाई, 2004 में हुई प्रधानमंत्री की बैंकाक यात्रा का जिक्र करते हुए लिखा है कि मनमोहन सिंह को पत्रकारों से मिलना था. मैं उनके कमरे में यह पूछने गया कि मीडिया से रूबरू होने से पहले क्या वह फ्रेश होना चाहेंगे. प्रधानमंत्री ने मुस्कराते हुए तुरंत जवाब दिया कि क्या शेर कभी अपने दांत मांजता है? बारू लिखते हैं कि मैंने उनके इस जवाब को एक नये और आत्मविश्वास से लबरेज मनमोहन सिंह के उदय का संकेत माना. ऐसा ही एक और वाकया किताब में है. बारू ने लिखा है कि प्रधानमंत्री के पहले कार्यकाल की शुरु आत में मैं एक प्रस्ताव लेकर उनके पास गया जिसको वह मंजूरी देने वाले थे. मैंने पूछा कि क्या इस प्रस्ताव पर सोनिया गांधी की सहमति है या हम पुलक से इस बाबत पता कर लें. मनमोहन सिंह ने गुस्से में कहा कि प्रधानमंत्री मैं हूं. ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को भी मनमोहन सिंह ने एक बार ङिाड़क दिया. तत्कालीन राजद सरकार की मांग पर बिहार को वित्तीय पैकेज मिलने के बाद नवीन पटनायक अपने राज्य के लिए भी वित्तीय पैकेज की मांग को लेकर प्रधानमंत्री से मिलने गये. उस समय पटनायक एनडीए में हुआ करते थे. वह उनसे मिले और जब उन्होंने मांग रखी तो प्रधानमंत्री ने कहा कि क्या पैसे पेड़ों पर उगते हैं?
दिल्ली में सितंबर, 2004 में आयोजित प्रधानमंत्री की प्रेस कान्फ्रेंस का ब्योरा बहुत विस्तार से बारू ने लिखा है. इस प्रेस कान्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने पूछे गये 52 सवालों में से 51 का जवाब आत्मविश्वास के साथ दिया और एक पर सिर्फ मुसकराये. इस प्रेस कान्फ्रेंस में उनसे एक सवाल यह भी पूछा गया था- ‘कई जगहों पर यह कहा जा रहा है कि मनमोहन सिंह को खतरा लेफ्ट या विपक्षी दलों से नहीं, बल्कि खुद से है. यदि आप पर दबाव बनाया जाता है और गंठबंधन को बनाये रखने के लिए ऐसी चीजों के लिए आपको मजबूर किया जाता है जो आपकी मान्यताओं के विपरीत हों तो आप इस्तीफा दे दें, क्या ऐसा हो सकता है?’ प्रधानमंत्री ने सौम्यता, परंतु दृढ़ता के साथ जवाब दिया कि मेरा मानना है कि हमारी सरकार पूरे पांच साल चलेगी. इस बारे में किसी को कोई संदेह या भ्रम नहीं होना चाहिए. इसलिए यह गलत धारणा सही साबित नहीं होने जा रही कि मुङो दबाव में मजबूर होना पड़ेगा. इस प्रेस कान्फ्रेंस के बाद प्रधानमंत्री की छवि पूरी तरह बदलने लगी थी. इसी के बाद अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ ने मनमोहन सिंह पर ‘हिज ओन मैन’ हेडलाइन से कवर स्टोरी की थी.
अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील के समय जब वाम दलों ने समर्थन वापस लेने की धमकी सोनिया गांधी को दी, उस समय मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी से स्पष्ट कह दिया था कि इस समय यूपीए के सामने दो विकल्प हैं. पहला, वाम दलों को दरकिनार करते हुए आगे बढें या फिर वाम दलों को साथ रखें और डील से खुद को पीछे खींच लें. यदि यूपीए दूसरे विकल्प पर जाता है तो उसे गंठबंधन के लीडर के रूप में दूसरा प्रधानमंत्री ढूंढ़ना पड़ेगा.
प्रधानमंत्री अपनी छवि को लेकर बहुत आश्वस्त रहते थे. जब वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे तो अपनी मारु ति 800 से चलते थे. उनके पुत्र, पुत्री या दामाद, कोई भी उद्यमी या बिल्डर नहीं हैं. पुत्र तो है ही नहीं, उनकी पुत्रियां और दामाद वेतनभोगी प्रोफेशनल हैं. इसकी वजह से उनको लगता था कि उन पर कोई स्कैंडल छू भी न पायेगा. संजय बारू लिखते हैं कि उनकी इसी छवि ने पहले कार्यकाल में काम किया. उनकी यह छवि गांव-गांव तक पहुंची हुई थी. किताब में 2009 के आम चुनाव के दौरान ‘द हिंदू’ में छपी विद्या सुब्रमण्यन की एक रिपोर्ट का जिक्र किया गया है. इसके मुताबिक, उत्तर प्रदेश के एक गांव में बातचीत के दौरान लोगों से पूछा गया कि वे किसको वोट देंगे तो जवाब मिला- कांग्रेस को, सरदार जी को, क्योंकि सरदार जी नेक आदमी हैं. 2009 के आम चुनाव का नतीजा सबको पता है.
यह कहा जाता है कि मनरेगा की वजह से 2009 में कांग्रेस जीती. लेकिन सिर्फ मनरेगा नहीं, किसानों की ऋण माफी भी एक बड़ा फैसला था जिसने कांग्रेस को जीत दिलायी. यह फैसला मनमोहन सिंह का ही था. उनका मानना था कि किसान कांग्रेस की एक बड़ी कांस्टीट्युएंसी हैं. 1979 में चरण सिंह सरकार के बाद किसी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर किसानों के लिए ऋण माफी की योजना घोषित की थी. 2009 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. मेरे गृह क्षेत्र जहां से कांग्रेस 1989 के बाद कभी नहीं जीती थी, वहां भी जीत गयी. मैंने अपने दो किसान मित्रों से चुनाव के दौरान बात की थी जिसमें से एक सपा का समर्थक और एक बसपा नेता था. दोनों ने कहा था कि एक किसान के रूप में वे कांग्रेस को ही वोट देना चाहेंगे. नतीजा सबकेसामने है.
लेकिन इसके बाद के पांच सालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी दृढ़ छवि बरकरार नहीं रख पाये. इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा सकती थी कि 2004-09 के बीच सोनिया गांधी को नहीं लगता था कि राहुल गांधी इस शीर्ष जिम्मेदारी के लिए तैयार हैं और प्रणब मुखर्जी पर उनको भरोसा नहीं था. लेकिन 2009 के चुनाव परिणामों के बाद सोनिया को लगने लगा कि राहुल गांधी तैयार हो गये हैं. पहला मौका आया शर्म अल-शेख में पाकिस्तान के साथ संयुक्त बयान के रूप में.
भाजपा ने तो इसे मुद्दा बनाया ही, कांग्रेस ने भी अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री की आलोचना की. मनमोहन सिंह ने संसद में अपना सफल बचाव किया, लेकिन कांग्रेस ने तब भी उनका साथ नहीं दिया. और यहीं से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि कमजोर होनी शुरू हुई. उसके बाद तो तमाम ऐसे मौके आये जब पार्टी ने और खास कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को उपहास का पात्र बनाया.
और अंत में..
रघुबीर सहाय की यह कविता आज के चुनावी माहौल के बरक्स पढ़ें और उन तमाम नेताओं की भाव-भंगिमा याद करें जो सबकुछ बदल देने का दावा कर रहे हैं :
आप की हंसी
निर्धन जनता का शोषण है
कह- कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह- कर आप हंसे
सब के सब हैं भ्रष्टाचारी
कह- कर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह- कर आप हंसे
कितने आप सुरिक्षत होंगे मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हंसे