जैसे स्नान!

मिथिलेश राय युवा रचनाकार कक्का कह रहे थे कि हमारा साहस जहां चूक जाता है, स्त्रियां वहां भी तनकर खड़ी रहती हैं. भले ही इसका कारण कुछ भी रहता हो. लेकिन वे जल्दी हार नहीं मानतीं और अंत तक आत्मसमर्पण नहीं करतीं. कक्का अपने जानते एक उदाहरण देकर इस बात को समझाते हैं. कहते हैं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 9, 2018 7:11 AM

मिथिलेश राय

युवा रचनाकार

कक्का कह रहे थे कि हमारा साहस जहां चूक जाता है, स्त्रियां वहां भी तनकर खड़ी रहती हैं. भले ही इसका कारण कुछ भी रहता हो. लेकिन वे जल्दी हार नहीं मानतीं और अंत तक आत्मसमर्पण नहीं करतीं. कक्का अपने जानते एक उदाहरण देकर इस बात को समझाते हैं.

कहते हैं कि जैसे स्नान को ही ले लो. इस कड़ाके की ठंड में जब हम नहाने के बारे में सोचना तक नहीं चाहते, वे बिना नागा रोज नहा लेतीं हैं. उनके पास इसके लिए एकमात्र बहाना होता है कि उन्हें तुलसी में जल चढ़ाना है या घर में धूप दिखानी है.

कक्का की बात सुनकर मुझे कुछ याद आ गया.

अभी एक आदमी कह रहा था कि आज वह दफ्तर नहीं जायेगा. सर्दी बहुत बढ़ गयी है. उसने फोन करके छुट्टी की अर्जी भी लगा दी है. पता चला है कि बाबू खुद नहीं आ रहे हैं. इस कड़ाके की ठंड में कौन निकले. जान बची, तो लाखों पायेंगे. उसकी बातें सुन-सुन कर एक दूसरा आदमी जो मुस्कुराये जा रहा था, कहने लगा कि भाई, मैंने तो तीन-चार दिनों से स्नान ही नहीं किया है. पानी देखता हूं, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. बड़ा डर लगता है.

कुछ गरमा-गरम खाओ और रजाई के नीचे दुबक जाओ, इसी में इस मौसम का आनंद है. लेकिन उसी का एक साथी यह कह रहा था कि सर्दी के इस मौसम में जब बाहर पछिया पागल की तरह बह रही हो और धुंध ने सारे दृश्यों को ढंक लिया हो, बदन को गरम कपड़े में लपेट कर घर से बाहर निकलना किसी रोमांच से कम नहीं होता है!

ठंड का मौसम जैसे ही आता है, पानी को लेकर तरह-तरह के चुटकुले सुने-सुनाये जाने लगते हैं.

कुछ चुटकुले तो ऐसे होते हैं कि सुनते ही लोग लोट-पोट हो जाते हैं. जबकि कुछ चुटकुले कम सच-बयानी ज्यादा लगता है. इस मौसम में पानी एक ऐसी चीज बन जाती है, जिसे देखकर ज्यादातर लोगों को अपनी नानी की याद आ जाती है! लेकिन कक्का का इस संदर्भ में एक अलग ही मत है.

उनका कहना है कि कोई सा भी मौसम क्यों न हो, मनुष्य हद-से-हद अपना कोई मामूली काम ही स्थगित करता है. खराब-से-खराब मौसम में भी आदमी अपना जरूरी काम संपन्न करके ही छोड़ता है. कक्का को आदमी पर बड़ा गर्व रहता है. कक्का मानते हैं कि कोई भी मौसम हो, वह हमेशा हमारे मिजाज को ही टटोलता है और अंततः हमारी क्षमता को ही परखता है.

ठंड में पानी से यारी को लेकर वे कहते हैं कि इस मौसम में खेत में जो फसल लगी होती है, उसे सर्दी उतरने से पहले दो बार सींचना पड़ता है.

अब तक न तो हमारी खेती की तकनीक इतनी उन्नत हुई है और न ही देश के किसान ही इतने संपन्न हुए हैं कि वे बिना भीगे खेतों में पनप रहे गेहूं-मक्का और राजमा के पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचा सके. इसी क्रम में पता नहीं उन्हें क्या याद आ जाता है कि वे स्त्रियों के साहस की बातें करने लगते हैं कि कई जगहों पर वे हमारा आत्मबल बनकर खड़ी रहती हैं!

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