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गायब होती कहावतें
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार अपने यहां बात-बात पर कहावतें कहने और उनमें छिपी सीख देने की आदत रही है. इनमें हास्य व्यंग्य भी होता था. मान लीजिए, किसी के काम की धीमी गति के बारे में चेताना हो, तो दादी-दादा, पिता-मां, कोई चाची, ताई-बुआ या पड़ोसन कोई-न-कोई कहावत कह देती थीं. महिलाओं को कहावतों, मुहावरों […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
अपने यहां बात-बात पर कहावतें कहने और उनमें छिपी सीख देने की आदत रही है. इनमें हास्य व्यंग्य भी होता था. मान लीजिए, किसी के काम की धीमी गति के बारे में चेताना हो, तो दादी-दादा, पिता-मां, कोई चाची, ताई-बुआ या पड़ोसन कोई-न-कोई कहावत कह देती थीं. महिलाओं को कहावतों, मुहावरों और उनके सही समय के प्रयोग पर महारत हासिल थी. कहा जाता था- नौ दिन चले अढ़ाई कोस. लेकिन अब कौन कोसों पैदल चलता है?
एक बहुत अच्छी कहावत थी- सहज पके सो मीठो होय. यह फलों के बारे में था कि जो फल सहजता यानी अपनी गति से पकता है, वह मीठा होता है. यह संबंधों के बारे में भी था कि जो संबंध सहजता से बनता है, वह न केवल मिठास से भरा होता है, बल्कि लंबे समय तक भी चलता है.हमेशा परिस्थिति एक जैसी नहीं रहती, गरीबी–अमीरी जीवन के खेल ही होते हैं. इसका तोड़ था- कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना.
एक और कहावत बात-बात पर कही जाती थी-अंधी पीसे कुत्ता खाय. यानी कि मेहनत कोई करता है, खाता कोई और है. मतलब, मेहनती की मेहनत का लाभ चतुर लोग उठा ले जाते हैं या कि मेहनती को परिश्रम का फल नहीं मिलता, उसका फायदा वह उठाता है, जिसने कोई परिश्रम नहीं किया होता. इसी तरह यह कहावत मां अक्सर कहती थी- ओखली में सिर दिया, तो मूसल का क्या डर, यानी जब किसी काम को करने का फैसला कर ही लिया, तो चुनौतियों से क्या घबराना..इसी तरह बेहद मेहनत करनेवाले और हर वक्त काम में लगे रहने वाले के बारे में कहा जाता था वह तो- कोल्हू का बैल है.
लेकिन, यदि आज कोई बच्चा कहे कि अंधी के पीसने का मतलब, और ओखली क्या होती है अथवा, कोल्हू किसे कहते हैं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि उसने ये सभी चीजें कभी देखी ही न हों. ओखली, कोल्हू, चक्की पुराने जमाने की तकनीक और रोजमर्रा के काम में आनेवाली चीजें ही थीं. मशीनीकरण ने इन सब यंत्रों को गायब कर दिया है.
एक पीढ़ी पहले के लोग तो इनके बारे में शायद जानते भी होंगे, लेकिन आज के शहराती बच्चों को शायद ही पता हो. मट्ठे से मक्खन निकालने वाली रई या मथानी को भी बहुत से बच्चे नहीं जानते. इसकी जगह मिक्सी और ब्लेंडर ने ले ली है. पुराने यंत्रों को आधार बनाकर जो कहावतें हमारे जन-जन में प्रचलित थीं, वे गायब होती जा रही हैं. इन कहावतों में अपने समय की तकनीक ही नहीं, लोगों के रहने–सहने के तरीके भी छिपे होते थे.
इन्हीं को आधार बनाकर लोगों को चेताने का काम किया जाता था. ये कहावतें हमारे ग्रामीण समाज की चतुराई, होशियारी और परिश्रम के प्रति उनके लगाव की प्रतीक हैं. हो सकता है कि आज के जमाने को देखकर कुछ नयी कहावतें बन जाएं, लेकिन क्या उनमें वह मिठास होगी, जो जन-जन से जुड़ी इन कहावतों में पायी जाती हैं.
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