बजट की चुनौतियां
बजट का समय निकट आने के साथ ही अनुमानों और आशाओं के स्वर तेज होते जा रहे हैं. वित्त मंत्री जेटली के सामने आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां बड़ी स्पष्ट हैं. इस साल आठ राज्यों में चुनाव हैं और साल के अंत से लोकसभा चुनाव के लिए माहौल बनने लगेगा. ऐसे में बजट को लोक-लुभावन बनाने […]
बजट का समय निकट आने के साथ ही अनुमानों और आशाओं के स्वर तेज होते जा रहे हैं. वित्त मंत्री जेटली के सामने आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां बड़ी स्पष्ट हैं. इस साल आठ राज्यों में चुनाव हैं और साल के अंत से लोकसभा चुनाव के लिए माहौल बनने लगेगा. ऐसे में बजट को लोक-लुभावन बनाने का दबाव स्वाभाविक है.
लेकिन, अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति ऐसे बजट के लिए बहुत अनुकूल नहीं है. नोटबंदी का असर अभी भी है और जीएसटी पर पूरी तरह से अमल होना बाकी है. जीएसटी के ढांचे के जड़ जमाने और सुचारू रूप लेने तक राजस्व का ठोस पूर्वानुमान मुश्किल है. वित्त मंत्री के सामने एक तरफ आर्थिक वृद्धि को अपेक्षित स्तर पर बनाये रखने की चुनौती होगी, तो दूसरी तरफ जनकल्याण की सरकारी योजनाओं के मद में ज्यादा राशि आवंटित करने की. आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट के संकेत हैं. साल 2014-15 में वृद्धि दर 7.5 फीसदी थी और 2015-16 में 8.0 फीसदी, लेकिन 2017-18 के लिए अनुमान महज 6.5 फीसदी का ही है. वृद्धि दर में बढ़ोतरी के लिए अर्थव्यवस्था के प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्रों में निवेश को बढ़ाने की आवश्यकता है.
इसके लिए पर्याप्त पूंजी जुटाने की चुनौती है. प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान, कृषि सिंचाई योजना, ग्राम ज्योति योजना और गरीब परिवारों को निःशुल्क रसोई गैस की योजना आदि से सरकार की सकारात्मक छवि बनी है. इन मदों में कटौती करना कठिन होगा. वित्त मंत्री को राह निकालनी होगी कि बुनियादी ढांचे पर हो रहे निवेश में कटौती किये बगैर जन कल्याण की योजनाओं पर खर्च बढ़ाया जा सके.
यह एक विरोधाभासी स्थिति है, जिसमें कॉरपोरेट टैक्स और आयकर देनेवाले उम्मीद लगायेंगे कि बजट में करों के मामले में कुछ छूट मिले, जबकि जनता के बड़े हिस्से की आस होगी कि उसकी क्रयशक्ति बढ़ाने के लिहाज से लोक कल्याण की योजनाओं में सरकार निवेश बढ़ाये.
विश्व बैंक की ओर से अच्छी खबर है कि भारत चूंकि, आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम बढ़ा रहा है, इसलिए 2018 में उसकी वृद्धि दर 7.3 फीसदी, इसके बाद के दो वर्षों में 7.5 फीसदी रह सकती है. लेकिन, इस आशावाद के बरक्स ठोस वास्तविकताएं कुछ अलग संकेत कर रही हैं. वित्त मंत्री को वित्तीय घाटे पर लगाम लगानी होगी, पर इसमें बड़ी बाधा है- अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमत. आकलनों के मुताबिक, कच्चे तेल की कीमत में प्रति बैरल 10 डॉलर की वृद्धि होने पर भारत का वित्तीय घाटा 0.1 फीसदी और चालू खाते का घाटा 0.4 फीसदी बढ़ता है और 10 फीसदी की मूल्य वृद्धि होने पर सकल घरेलू उत्पाद में 0.5-0.6 प्रतिशत की कमी आती है.
उत्पाद शुल्क घटाने पर राजस्व में कमी आयेगी. रोजगार के अवसर बढ़ाना, कृषि-संकट से उबरना, वित्तीय घाटा कम रखना और आर्थिक वृद्धि के लिए माहौल तैयार करना आदि बड़ी चुनौतियों के बीच से वित्त मंत्री को राह निकालनी होगी.