राजनीतिक भूल के मुहाने पर वाम
भारतीय राजनीति में अगर किसी मोर्चे को उसके नेताओं की ईमानदारी भारी पड़ेगी तो वह वाम मोर्चा ही है. अपनी आर्थिक ईमानदारी का मजबूत आधार लिये वाम मोर्चा लगता है कि राजनीतिक गलती करने के लिए ही बना है. एक बार फिर वह उसी तीसरे मोर्चे को आगे बढ़ाने की दिशा में कोशिश करता दिख […]
भारतीय राजनीति में अगर किसी मोर्चे को उसके नेताओं की ईमानदारी भारी पड़ेगी तो वह वाम मोर्चा ही है. अपनी आर्थिक ईमानदारी का मजबूत आधार लिये वाम मोर्चा लगता है कि राजनीतिक गलती करने के लिए ही बना है. एक बार फिर वह उसी तीसरे मोर्चे को आगे बढ़ाने की दिशा में कोशिश करता दिख रहा है, जैसा वह 1989 और 1996 में कर चुका है.
दोनों बार गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा दलों को साथ लाने का उसका आधार गैर कांग्रेसवाद रहा. हालांकि 1989 में उसने वीपी सिंह सरकार को भाजपा के साथ समर्थन दिया था. हालांकि 1996 आते-आते वाम मोर्चा के सैद्धांतिक आधार में बदलाव आया और उसने गैर कांग्रेसवाद के साथ सांप्रदायिकता के विरोध का भी रास्ता अख्तियार किया और पहले देवेगौड़ा और बाद में इंद्रकुमार गुजराल की सरकारों को समर्थन दिया.
इतना ही नहीं, वाम मोर्चे ने अपने सैद्धांतिक आधार को इतना प्रभावी बना दिया कि उसने गैर कांग्रेसवाद के नाम पर एकित्रत हुए गैर बीजेपी और गैर कांग्रेसी दलों की सरकार को कांग्रेस से समर्थन भी दिलवा दिया. तब वाम मोर्चे की तरफ से सीपीएम के महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत उस नयी राजनीतिक सैद्धांतिकी के बड़े पैरोकार थे. लेकिन बाद में उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ होने लगा था.
हालांकि 1995 की चंडीगढ़ कांग्रेस (महाधिवेशन) में सीपीएम के प्रमुख सांसद रहे सैफुद्दीन चौधरी ने कांग्रेस विरोध की बजाय कांग्रेस समर्थन की राजनीति अख्तियार करने की वकालत की थी. तब सीपीएम में उनकी राय का इतना विरोध हुआ कि अगले ही साल के आम चुनावों में सीपीएम ने उनका टिकट काट दिया. एक बार फिर वाम मोर्चा राजनीतिक भूल के मुहाने पर खड़ा है.
सौरभ कुमार, ई-मेल से