कौन लुटा रहा है ये रुपये?

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।। (वरिष्ठ टीवी पत्रकार) एक लाख करोड़ रुपये भारत जैसे देश के लिये क्या मायने रखते हैं यह देश के 90 फीसदी हिंदुस्तान से पूछियेगा तो वह दांतों तले अंगुली दबा लेगा. लेकिन देश के ही उस दस फीसदी तबके से पूछियेगा, जो भारत के 80 फीसदी संसाधन का उपभोग कर रहा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 4, 2014 3:59 AM

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।।

(वरिष्ठ टीवी पत्रकार)

एक लाख करोड़ रुपये भारत जैसे देश के लिये क्या मायने रखते हैं यह देश के 90 फीसदी हिंदुस्तान से पूछियेगा तो वह दांतों तले अंगुली दबा लेगा. लेकिन देश के ही उस दस फीसदी तबके से पूछियेगा, जो भारत के 80 फीसदी संसाधन का उपभोग कर रहा है तो वह इसे दांत खोदने के खरिका से ज्यादा नहीं समङोगा. तो ऐसे भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रु पये के वारे न्यारे खुले तौर पर हो रहे हैं. इसमें चुनाव आयोग का खर्च सिर्फ 3500 करोड़ रु पये है. बाकी का रु पया कहां से आ रहा है, कौन लुटा रहा है? हवाला है या काला धन? या फिर नकली मुद्रा का अंतरराष्ट्रीय गंठजोड़? इन सवालों में रुचि किसी की नहीं है. चुनावी लोकतंत्र को कैसे लोकतांत्रिक धंधे में बदला गया है, यह देश भर की हर लोकसभा सीट को लेकर लग रहे सट्टा बाजार की बोली से समझा जा सकता है जहां 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का खेल खुले तौर पर हो रहा है. और इसमें अभी तक सबसे वीवीआइपी सीट बनारस पर दावं नहीं लगा है. उम्मीदवारों का प्रचार खर्च 30 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है. यहां तक चुनाव आयोग की नजर है.

लेकिन इसके बाद कितने हजार करोड़ कौन कैसे खर्च कर रहा है, यह बेहिसाब है. क्योंकि अंगरेजी के सबसे बड़े राष्ट्रीय अखबार में किसी के मरने पर सबसे छोटे विज्ञापन का खर्च आता है 24 हजार रु पये. जो अंदर एक निर्धारित पन्ने पर छपता है. लेकिन राजनीतिक दल या कोई नेता वोट मांगने के लिये अगर पहले पन्ने को ही खरीद लेता है तो तमाम रियायत के बाद भी 70 लाख रुपये से ज्यादा हो जाता है. जो चुनाव आयोग द्वारा तय एक उम्मीदवार के प्रचार खर्च से बड़ी रकम है. बावजूद इसके हर कोई खामोश है. क्योंकि बीते एक महीने में अखबारी और टीवी विज्ञापन पर कुल खर्च सौ करोड़ पार कर चुका है. यह पैसा कौन दे रहा है? कहां से आ रहा है? किसकी नजर इस पर है? ये सभी अभी भी सवाल हैं.

दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र कितना महंगा हो गया है, यह आजादी के बाद के चुनावों से तुलना करके देखें या फिर सिर्फ इस बार के चुनाव को परखें तो भी तस्वीर पारदर्शी दिखायी देगी. आजादी के बाद पहले चुनाव में कुल खर्च 11 करोड़ 25 लाख रुपये का हुआ था. और 2014 में अभी जो चुनाव हो रहे हैं, उसका आंकड़ा 34 हजार करोड़ पार कर रहा है. 1952 में चुनाव आयोग के खर्च में ही चुनाव संपन्न हो गया था. लेकिन अब आयोग से दस गुना ज्यादा खर्च उम्मीदवार कर देते हैं. तो रुपयों में कैसे चुनावी लोकतंत्र का यह मिजाज बदला है, यह समझना भी दिलचस्प है. 1952 में चुनाव आयोग को प्रति वोटर 60 पैसे खर्च करने पड़ते थे. वहीं 2014 में यह 437 रुपये हो चुका है. 1952 में चुनाव आयोग का खुल खर्च साढ़े दस करोड़ हुआ था. उस वक्त 17 करोड़ वोटर थे. लेकिन आज देश में 81 करोड़ वोटर हैं और चुनाव आयोग का खर्च साढ़े तीन हजार करोड़ पार कर चुका है.

लेकिन सवाल चुनाव आयोग के 3500 करोड़ के खर्च का नहीं है. असल सवाल है, जो चुनाव लड़ते है वह जीतने के लिए दोनों हाथों से जिस तरह चुनाव खर्च के नाम पर पैसा लुटाते हैं या उन्हें लुटाना पड़ता है, उसका असर यह हो चला है कि 1952 के चुनाव में सभी उम्मीदवारों ने अपने चुनाव प्रचार पर सिर्फ 75 लाख रुपये खर्च किये थे, तो 2014 के चुनाव में उम्मीदवारों का खर्च 30 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज और नेशनल इलेक्शन वाच की मानें तो चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार जिस तरह रुपये लुटा रहे हैं, उसने इसके संकेत तो दे ही दिये है कि चुनाव सबसे कम वक्त में सबसे बड़े बिजनेस में तब्दील होता जा रहा है. उम्मीदवार चुनाव प्रचार के नाम पर कितना खर्च कर रहे हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1952 में जितना खर्च सभी उम्मीदवारों के प्रचार पर आया था (करीब 75 लाख रुपये), करीब उतनी ही रकम 2014 में हर उम्मीदवार अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है जिसकी इजाजत चुनाव आयोग दे चुका है. हर उम्मीदवार की प्रचार खर्च की सीमा 70 लाख रु पये है. लेकिन किसी भी उम्मीदवार से मिलिये तो वह यह कहने से नहीं कतरायेगा कि 70 लाख में चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है. यानी रुपया और ज्यादा बहाया जा रहा होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट की मानें तो मौजूदा चुनाव में औसतन 5 करोड़ रुपये तक का खर्च हर सीट पर पहले तीन उम्मीदवार अपने प्रचार में कर ही रहे हैं. बाकियों का औसत भी 2 करोड़ से ज्यादा का है. यानी 2014 के चुनाव का जो खर्च 34 हजार करोड़ नजर आ रहा है वह और कितना ज्यादा होगा, इसके सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते हैं. लेकिन यह रास्ता जा किधर रहा है. क्योंकि एक वक्त राजनीति में अपराधी घुसे क्योंकि राजनेता बाहुबलियों और अपराधियों के आसरे चुनाव जीतने लगे थे. और अब कारपोरेट या औद्योगिक घराने राजनीति में सीधे घुसेंगे क्योंकि राजनेता अब कारपोरेट की पूंजी पर निर्भर हो चले हैं. यह सवाल इसलिए बड़ा हो चला है क्योंकि जिस तर्ज पर मौजूदा चुनाव में रुपये खर्च किये जा रहे हैं, उसके पीछे के स्रोत क्या हो सकते हैं और स्नेत अब सीधे राजनीतिक मैदान में क्यों नहीं कूदें.

याद कीजिये तो बीस बरस पहले वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनेताओं के साथ बाहुबलियों और अपराधियों के गंठजोड़ के खेल को खुले तौर पर माना गया था. और रिपोर्ट में इसके संकेत भी दिये गये थे कि अगर कानून के जरिये इस पर रोक नहीं लगायी गयी तो फिर आने वाले वक्त में संसद के विशेषाधिकार का लाभ उठाने के लिए अपराधी राजनीति में आने से चूकेंगे नहीं. और इन बीस बरसों में हुआ भी यही. 15वीं लोकसभा में 162 सांसदों ने अपने खिलाफ दर्ज आरपाधिक मामलो की पुष्टि की. अपराधियों का असर और ज्यादा हुआ तो विधायकों से लेकर सांसदों ने भी आपराधिक छवि को तवज्जो दी और मौजूदा राज्यसभा में कुल 232 सांसदों में से 40 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. असल में जितनी बडी तादाद में बकायदा अपने हलफनामे में आपराधिक मामले दर्ज करनेवाले राजनेता विधानसभा से लेकर संसद तक में हैं, उसमें अब यह सवाल छोटा हो चला है कि साफ छवि के आसरे कौन चुनाव लड़ रहा है. लेकिन अब बड़ा सवाल रुपयों का हो चला है, तो रुपये लुटानेवालों की ताकत भी बढ़ती जा रही है. और ध्यान दें तो इस बार चुनाव में 400 हेलीकाप्टर लगातार नेताओं के लिए उड़ान भर रहे हैं. डेढ़ दर्जन से ज्यादा किराये के विमान नेताओं के प्रचार में लगे हैं. नेताओं के प्रचार की दूरी नापने के लिए करीब 450 करोड़ रु पये हवा में ही फूंक दिये गये हैं.

इसी तर्ज पर चुनाव प्रचार के अलग अलग आयामों पर जितना खर्च हो रहा है, चाहे वह अखबार से लेकर टीवी पर विज्ञापन हो या सोशल मीडिया से लेकर तकनीकी प्रचार के आधुनिकतम तरीके, इतने खर्चे कौन कहां से कर सकता है? अगर राजनेताओं की जीत के आसरे यह अकूत धन लुटाया जा रहा है, तो फिर अगला सवाल इस धन को वसूलने का भी होगा. यानी जिस यार-दोस्त पूंजीवाद (क्रोनी कैप्टलिज्म) को रोकने की बात मनमोहन सिंह करते रहे और भाजपा अंगुली उठाती रही और इसी के साये में 2जी से लेकर कोयला घोटाला तक हो गया, जिस पर तमाम विपक्षी पार्टियों ने संसद ठप की, सड़क पर मामले को उठाया, मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल यही है कि यार-दोस्त पूंजीवाद यानी कारपोरेट या औद्योगिक घरानों के साथ सरकार या मंत्रियों के कारोबारी सहयोग पर रोक लगायेगा कौन?

अगर उस पर नकेल कसेगी, तो फिर कारपोरेट सत्ता में आने के लिए बैचेन राजनेताओं पर रुपया लुटायेगा क्यों? और अगर देश के विकास का मॉडल ही कारपोरेट या औद्योगिक घरानों की जेब से होकर गुजरेगा तो फिर राजनेता कितने दिन तक पूंजी के आसरे पर टिकेंगे? क्योंकि एक वक्त अपराधी राजनीति में आये और सरकार चलाने से लेकर संसद में नियम-कानून बनाने लगे, तो फिर अब कारपोरेट या औद्योगिक घराने अपने धंधे के लिये राजनीति में क्यो नहीं आयेंगे? और जिस लीक पर देश का लोकतंत्र रु पये की पेटियों के आसरे चल निकला है, उसमें राजनेताओं को कमीशन दे कर काम कराने के तौर-तरीके कितने दिन टिकेंगे?

राजनीति में सीधे शिरकत करने से कमीशन भी नहीं देना पड़ेगा और धंधे पर टिका विकास का मॉडल भी किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा रफ्तार से चलेगा. और यह इसलिए अब संभव लगने लगा है क्योंकि चुनाव कैसे साफ-सुथरे हों और सरकार के पास बिना रु पयों के खेल के कौन सा विजन है, यह इस बार चुनाव में ना सिर्फ गायब है, बल्कि विकास का समूचा विजन ही रुपयों के मुनाफे पर सरपट दौड़ रहा है.

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