नाग के फन पर बुद्धि!
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार हमारी पृथ्वी नागराज के फन पर टिकी हुई नहीं है, विज्ञान ने इसे बहुत पहले साबित कर दिया था. सूर्य पृथ्वी की नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, इसे साबित हुए सदियों बीत गये. बहुत पहले माना जाता था कि नागराज हिलते हैं, तो भूकंप आता है. आज यह […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हमारी पृथ्वी नागराज के फन पर टिकी हुई नहीं है, विज्ञान ने इसे बहुत पहले साबित कर दिया था. सूर्य पृथ्वी की नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, इसे साबित हुए सदियों बीत गये. बहुत पहले माना जाता था कि नागराज हिलते हैं, तो भूकंप आता है. आज यह बात कोई मूर्ख भी नहीं कहता.
पुरानी मान्यताओं एवं विश्वासों को विज्ञान की चुनौती मिलती रही है. विज्ञान की अवधारणाओं और सिद्धांतों को आगे चलकर खुद विज्ञान से चुनौती मिली है. उन्नत विज्ञान पुराने सिद्धांतों को प्रयोगों और प्रमाणों से पुष्ट करता है या इन्हीं आधारों पर पुराने को खारिज कर नये सिद्धांत बनाता है. इसी तरह मानव जाति ने तरक्की है.
पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने यह कहकर सबको हैरत में डाल दिया कि डार्विन का ‘उत्पत्ति का सिद्धांत’ गलत है. उन्होंने तर्क दिया कि जबसे हम कहानियां सुनते आये हैं, जबसे किताबें लिखी जा रही हैं, आज तक किसी ने यह नहीं कहा या लिखा कि हमने जंगल में बंदर को मनुष्य बनते देखा. मंत्री जी ने सुझाव दिया कि स्कूली पाठ्यक्रम से डार्विन का सिद्धांत हटा दिया जाना चाहिए. बच्चों को गलत पढ़ाया जा रहा है. उनके बयान से देश का विज्ञानी समुदाय ही नहीं, सामान्य जन भी हतप्रभ है. उनके बयान पर दुख और अफसोस जाहिर किया गया है. विज्ञानियों ने दोहराया है को डार्विन का उत्पत्ति का सिद्धांत, जो बताता है कि कभी मनुष्य के पूर्वज बंदर थे या बंदरों और मनुष्य का विकास एक ही पूर्वज से हुआ, विज्ञान-सम्मत और सर्व-स्वीकार्य है. अब तक किसी दूसरे भाजपाई ने उनके बयान का समर्थन नहीं किया है, खंडन भी नहीं.
सत्यपाल सिंह पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं. उन्होंने दिल्ली विवि से रसायन शास्त्र में पीएच-डी की है. राजनीति में आने से पहले वे आईपीएस थे और मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे. आज वे केंद्र सरकार में उस मानव संसाधन मंत्रालय में राज्य मंत्री हैं, जिस पर देश को श्रेष्ठ शिक्षा-व्यवस्था देने का उत्तरदायित्व है.
डार्विन के सिद्धांत को चुनौती न दी जा सके या अब तक न दी गयी हो, ऐसा नहीं है. विज्ञान के प्रत्येक सिद्धांत को ढेरों चुनौतियों का सामना करना पड़ता रहा है. उत्पत्ति का सिद्धांत भी इन चुनौतियों से गुजरा, लेकिन आज भी टिका हुआ और सर्व-मान्य है, तो सिर्फ इसलिए कि उसकी काट सप्रमाण नहीं की जा सकी. विज्ञान प्रमाण की मांग करता है, जो सिद्ध किया जा सके.
हमारे विद्वान राज्य मंत्री को डार्विन के सिद्धांत को चुनौती देनी है, तो उन्हें प्रमाण जुटाकर उसे गलत साबित करना होगा. विज्ञान जगत इसका स्वागत ही करेगा और मानव जाति उनकी ऋणी होगी कि उन्होंने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया. सत्यपाल सिंह सच कहते हैं कि किसी ने जंगल में बंदर को आदमी बनते नहीं देखा. उत्पत्ति का सिद्धांत कहता है कि इसमें करोड़ों वर्ष लगे. इस सृष्टिएवं मानव का विकास जादू से एकाएक बंदर के मनुष्य में बदलने की तरह नहीं हुआ.
दुर्भाग्य से भाजपा के छोटे से बड़े नेता तक अक्सर अजब-गजब बयान देते रहते हैं, जिनका कोई आधार नहीं होता. वैज्ञानिक आधार तो कतई नहीं. राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने कहा था कि गाय अकेला जानवर है, जो सांस में आक्सीजन लेता ही नहीं छोड़ता भी है, कि गोबर में रेडियोधर्मिता-निरोधी गुण हैं, कि गोमूत्र से कैंसर ठीक हो जाता है. यह सच है या निरी गप है, इसे सिद्ध करना कठिन नहीं. गोमूत्र से कैंसर का इलाज हो जाता, तो हजारों मरीज इस दुस्साध्य रोग से क्यों मर रहे होते? गाय को पूजना आस्था की बात है.
लेकिन, उसके बारे में झूठी, अवैज्ञानिक बातें करना क्या है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अक्तूबर 2014 में गणेश जी के संदर्भ में कहा था कि जब मानव-धड़ में हाथी का सिर लगाया गया था, तब अवश्य ही हमारे यहां प्लास्टिक सर्जरी होती होगी. कर्ण अपनी मां की कोख के बाहर पैदा हुआ, इससे साबित होता है कि हमारे यहां तब जेनेटिक साइंस प्रचलित थी. प्लास्टिक सर्जरी के अति-उन्नत इस दौर में भी विज्ञान यह साबित नहीं कर सका है कि किसी पशु का सिर मानव धड़ में प्रत्यारोपित किया जा सकता है. बल्कि, विज्ञान ऐसे प्रयोगों का दुस्साहस नहीं करने देता.
ऊंची डिग्री धारी और उच्च पद पर आसीन होना इस बात की गारंटी नहीं है कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो. सामान्य, अनपढ़ मनुष्य का नजरिया भी वैज्ञानिक हो सकता है.
यह जीवन को देखने की दृष्टि है, जो हमें आगे ले जाती है. अंधविश्वास या अवैज्ञानिक दृष्टिकोण पीछे धकेलते हैं. ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति, जिसके बहुत सारे समर्थक और अनुयायी होते हैं, उसकी ही दृष्टि संकुचित हो तो समाज में कैसा संदेश जायेगा?
हमारा जीवन वैसे ही अनेक अंधविश्वासों से घिरा है. सुदूर गांव-कस्बों में ही नहीं, बड़े शहरों तक में कई आदिम मान्यताएं प्रचलित हैं, जो अक्सर बहुत अमानवीय और वीभत्स होती हैं.
चिकित्सा विज्ञान की खूब प्रगति के बावजूद सांप के काटने या पीलिया हो जाने पर ओझा से झाड़-फूक कराते हुए कितने ही लोग मृत्य को प्राप्त होते हैं. किसी पेड़ के स्पर्श या किसी कुंए के जल से असाध्य रोगों के उपचार की अफवाह फैलते ही लाखों की भीड़ उस ओर दौड़ लगाती है. कभी जनता देव-प्रतिमाओं को दूध पिलाने उमड़ पड़ती है. व्यभिचारी और ठग ‘बाबा’ देशभर में फल-फूल रहे हैं. ‘बाबा’ राम रहीम के अपराध के किस्से खुलते हाल ही में देशभर ने देखे. उसके बाद भी ‘आस्थाएं’ टूट नहीं रहीं. अनंत किस्से हैं. अवैज्ञानिक सोच गहरे पैठा है.
अगर सरकारों में बैठे मंत्री और बड़े नेता ही अवैज्ञानिक सोच से ग्रस्त होंगे, तो जनता ऐसी मानसिकता से कैसे मुक्त होगी? इस अवैज्ञानिकता को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है? क्या हमारी सरकारों ने शिक्षा-प्रणाली को ऐसा बनाने के बारे सोचा है, जो अक्षर-ज्ञान से आगे जाकर जीवन की वैज्ञानिक समझ विकसित कर सके? ‘हिंदू-ज्ञान और परंपरा’ की महानता साबित करने मात्र के लिए देश को पीछे ले जाना कहां की बुद्धिमानी है?
और, जो चंद लोग अवैज्ञानिक सोच, ‘बाबाओं’ की ठगी, और झूठे चमत्कारों के जाल से जनता को बचाने का अभियान चलाते हैं, वे क्यों मारे जाते हैं?
वैज्ञानिक दृष्टि समस्याओं के समाधान में मददगार होती है और जीवन को सुंदर बनाती है. अप्रमाणित मान्यताओं को चुनौती देना विज्ञान है. सप्रमाण स्थापित सिद्धांतों को बिना प्रमाण खारिज करना कूप-मंडूकता है.