एक उचित निर्णय

जिन बातों को समाज के दायरे में ही समझ और सुलझा लिया जाना चाहिए, उन को लेकर भी अक्सर विवाद इतना तूल पकड़ता है कि बगैर अदालती दखल के मामला शांत नहीं होता. जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की बुनियाद पर कायम होनेवाली सामाजिक पहचान व्यक्ति की स्वतंत्र सोच को अपने अंकुश में रखना चाहती […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 25, 2018 5:28 AM
जिन बातों को समाज के दायरे में ही समझ और सुलझा लिया जाना चाहिए, उन को लेकर भी अक्सर विवाद इतना तूल पकड़ता है कि बगैर अदालती दखल के मामला शांत नहीं होता.
जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की बुनियाद पर कायम होनेवाली सामाजिक पहचान व्यक्ति की स्वतंत्र सोच को अपने अंकुश में रखना चाहती है और बहुधा राजनीतिक मुद्दा बनकर सामाजिक विद्वेष का कारण बनती है. केरल की 24 वर्षीया हदिया उर्फ अखिला की शादी का मामला कुछ ऐसा ही है. उसने अपनी पसंद से अंतरधार्मिक ब्याह किया, पर परिवार को यह पसंद नहीं आया. क्षेत्रीय राजनीति ने एक शादी को ‘लव-जिहाद’ के चालू मुहावरे के भीतर रखकर देखना चाहा.
मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, जहां फैसला होना था कि हदिया के ब्याह के फैसले को एक स्वतंत्र व्यक्ति का फैसला माना जाये या इसे फुसलाने-बहकाने के नतीजे के रूप में. व्यक्ति के चयन और वरण की स्वतंत्रता के पक्ष में सराहनीय फैसला करते हुए अदालत ने कहा है कि दो बालिग व्यक्ति शादी का फैसला करते हैं, तो इसकी वैधता को चुनौती देने का हक माता-पिता या किसी भी तीसरे पक्ष को नहीं है.
अच्छा होता कि बात अदालत तक नहीं पहुंचती. समाधान की सूझ तो इस देश में सदियों से मौजूद है. यह सांस्कृतिक समझ है कि संतान उम्र के सोलहवें साल में प्रवेश कर जाये, तो उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए- ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रम् मित्रवदाचरेत…’ यह सीख बहुत महत्वपूर्ण है. एक विशेष आयु को प्राप्त कर चुके संतान के साथ मित्रवत् आचरण की सीख देनेवाले चाणक्य के श्लोक में नये जमाने की संवेदना के अनुरूप एक अहम बात का स्वीकार है.
बात यह कि लाड़-दुलार और अनुशासन के दौर से गुजरने के बाद एक खास उम्र में संतान अपने निजी व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेती है, निजी और सार्वजनिक शुभ-अशुभ के बारे में स्वतंत्र रूप से सोचने की उसकी क्षमता का विकास हो चुका होता है, सो माता-पिता या वृहतर समाज के लिए बेहतर यही है कि वे संतान को अपनी स्वतंत्र सोच के अनुसार निर्णय करने दें. निर्णय से असहमति जतानी है, तो यह बाधा या रोक के तौर पर नहीं, बल्कि एक सलाह के रूप में जतायी जाये. अफसोस है कि माता-पिता, परिवार या फिर किसी व्यक्ति की जाति या उनके धर्म के समुदाय के नुमाइंदे इस सहज और अपेक्षित नैतिकता के पालन को लेकर हमेशा असहज रहते हैं.
बात पढ़ाई-पहनावे, घूमने-फिरने या मिलने-जुलने की हो या फिर पसंद से ब्याह करने की, व्यक्ति अपना सोचा न कर पाये, इसके लिए रोक-टोक से लेकर जान से मार देने के उपाय अपनाये जाते हैं. समाज की प्रगति में ही देश के व्यापक विकास का आधार समाहित होता है, इसलिए स्वतंत्रता के मूल्यों को आत्मसात करना जरूरी है. अदालत के आदेश के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि संकीर्ण और रूढ़िवादी सोच वाले अपनी करनी से बाज आयेंगे.

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