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समझें आर्थिक सर्वेक्षण के इशारे
मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार बजट सत्र शुरू हुआ और सरकार का 500 पन्नेवाला ताजा आर्थिक सर्वेक्षण सोमवार को (संभवत: पहली बार) एक गुलाबी रंग की खुशनुमा जिल्द में लपेटकर संसद में पेश किया गया. बताया गया, गुलाबी रंग महिला शक्ति का प्रतीक है, मां तुझे सलाम! तब से जानकार लोग कह रहे हैं कि चुनाव […]
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
बजट सत्र शुरू हुआ और सरकार का 500 पन्नेवाला ताजा आर्थिक सर्वेक्षण सोमवार को (संभवत: पहली बार) एक गुलाबी रंग की खुशनुमा जिल्द में लपेटकर संसद में पेश किया गया. बताया गया, गुलाबी रंग महिला शक्ति का प्रतीक है, मां तुझे सलाम! तब से जानकार लोग कह रहे हैं कि चुनाव का माहौल बनने लगा है और बहनों की आबादी कुल की पचास फीसदी यानी सबसे बड़ा वोट बैंक है.
इससे हो-न-हो, इस बार के बजट में महिलाओं को खास छूट मिलने के आसार हैं. उसी शाम एक चैनल पर सरकार के विशेष आर्थिक सलाहकार ने भी चिकने-चुपड़े अर्थशास्त्री एंकर से लंबी बातचीत की. दोनों की बातचीत के दौरान सरकार की तरफ से अंग्रेजी बोलनेवाले मुख्य आर्थिक सलाहकार ने देश को मुलायमियत से मनमोहक भाषा में समझाया- ‘जिस समय दुनियाभर में दशक बाद भारी वित्तीय उछाल आया, उस दौरान नोटबंदी तथा जीएसटी के असर से भारत की आर्थिक तरक्की पर कुछ नकारात्मक असर तो पड़ा है, पर वह अस्थायी साबित होगा. विश्व में कच्चे तेल के भी दाम बढ़े हैं, पर घबराने की बात नहीं.
सरकार की योजनानुसार चले, तो काॅरपोरेट तरक्की का इंजन देश की विकास दर को सात फीसदी तक खींच ले जायेगा. हां, 2018 में कृषि क्षेत्र में भी कुछ गिरावट आयी है और संगठित क्षेत्र की सिकुड़न से असंगठित क्षेत्र में बेरोजगार बढ़े हैं, लेकिन संगठित क्षेत्र अब उठने के लक्षण दिखा रहा है. निर्यात भी बढ़ रहा है.’
इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण का एक सराहनीय पक्ष यह रहा कि इसने देश में महिला शिक्षा आयु और आबादी में लिंगगत अनुपात के आंकड़े देकर देश के समाजशास्त्रीय खाके को पेश किया है.
इसके अनुसार कुल आबादी में लड़कियों की तादाद और उच्च शिक्षा की दशा बहुत उजली नहीं दिखती. पर बताया गया कि महिलाओं का सशक्तीकरण करने को सरकार कमर कसे हुए है. बहुविवादित जीएसटी के गुणों और दीर्घकालीन सुफलों के खुलासे के लिए तो आर्थिक सर्वेक्षण के मसौदे में एक पूरा अध्याय भी है.
यह तो हुई कागद की लेखी, पर आंखिन देखी की बात करें, तो उजली आर्थिक तस्वीर कुछ मलिन होने लगती है.मनरेगा और कृषि क्षेत्र की सिकुड़न का खतरनाक असर महिलाओं पर ही पड़ रहा है, जो भारी तादाद में बेरोजगार बन रही हैं. मनरेगा का भुगतान भी पूरा नहीं हुआ, उससे और आधार योजना की कुछ कमियों से उनके लिए समय पर सस्ता राशन पाना दुष्कर बन गया है. साथ ही साल के पहले महीने में ही मुंबई, जयपुर, गुरुग्राम और कासगंज में शर्मनाक खतरनाक वारदातें हुईं, जिनसे जान-माल की क्षति के चर्चे दुनिया के सारे मीडिया में भर्त्सना का विषय बने हैं. ऐसे माहौल की बात सुनकर अपनी पूंजी का निवेश करने से पहले विदेशी मालदार दो बार सोचने पर मजबूर हो सकते हैं.
सरकार वैसे भी मुनाफे का स्वदेश में निवेश के लिए उनको अपने देश में करों तथा बैंक दरों में आकर्षक कटौतियां और छूटें दे रही है.
समाज में जातीय सांप्रदायिक दरारें पिछले सालों में लगातार बढ़ने से भौतिक असुरक्षा का माहौल (खासकर अल्पसंख्यकों-महिलाओं के लिए) और भी बढ़ा है. यह मानकर चलना अतिरेक ही होगा कि सरकार के अमुक स्कीम पर काम करने और तमुक छूट देनेभर से देशी-विदेशी पूंजी उमड़ पड़ेगी और अगले बरस तरक्की की रफ्तार हमारी अपनी उम्मीदों के अनुसार बढ़ जायेगी.
जब गुणीजन सर्वेक्षण के निहितार्थों को लेकर 2019 के आम चुनावों की विवेचना कर रहे थे, उसी दिन दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में महामहिम राष्ट्रपति जी ने भाषण में ‘आधार’ योजना की तारीफ के साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकमुश्त कराने की पैरोकारी कर जल्द आम चुनावों की चर्चाओं को तूल दे दिया. गौरतलब है कि ग्लोबल दुनिया में हर देश की आर्थिक गर्भनाल एक-दूजे से जुड़ी है.
चीन को छींक आने से अमेरिका को बुखार आ जाता है और अमेरिकी वीजा कटौती सारे एशिया लातिन अमेरिका को निमोनिया लाती है. सऊदी अरब में सत्ताबदल तेल की धार ने हमारे यहां भी महंगाई बढ़ा दी है. मारामारी में हम शामिल न भी हों, तब भी भारत की माली हालत पर इसका और ग्लोबल पर्यावरण का समवेत बुरा असर पड़ सकता है. मौसमी वैज्ञानिक खेती में 25 फीसदी गिरावट की आशंका जता रहे हैं.
दूसरा फैलता बड़ा ब्लैक होल बेरोजगारी का है. सरकार ने सत्ता में पग धरते ही वादा किया था कि वह न्यूनतम सरकार अधिकतम सुशासन (मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस) लायेगी. पर पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद भी उसमें चार सालों में कर्मियों की तादाद 7.2 प्रतिशत बढ़ गयी. वह भी बढ़ोतरी भी जिन मंत्रालयों में काम का दबाव देखते हुए बढ़नी चाहिए थी (स्वास्थ्य व परिवार कल्याण) उनकी बजाय गृह, वित्त (सबसे बड़ी तादाद में कर विभाग में) और प्रतिरक्षा मंत्रालयों में हुई है. अब सरकार नौकरियों में कटौती की बात कर रही है. अगर ऐसा होगा, तो बेरोजगारों की फौज बढ़ेगी, और वह फौज ज्यादा नाराज और ज्यादा आग्रही होगी.
मौजूदा सरकार का महान गुण यह है कि सत्ता में वह कांग्रेस की ही तरह काम कर रही है. पार्टी ने अपने सार्वभौम नेता को रेफरी बनाकर राज्य स्तर से शीर्ष तक उनको ही सब तय करने के अधिकार दे दिये हैं. उधर प्रतिपक्ष हर हादसे, गलती के बाद बराये दस्तूर त्यागपत्र की मांग तो कर देता है, पर किसी तरह की तटस्थ और निष्पक्ष कसौटियां या एकजुटता उसके खेमे में भी नहीं है.
देश ने गांधीजी की 70वीं पुण्य तिथि मनायी. टीवी पर वही बोसीदे चेहरे के बयान देखकर लगा कि पाताली गहराई में उतरकर ग्रामीण जनता के बीच जाकर काम करने की प्रथा अब किसी दल में नहीं बची. वसुंधरा राजे या नवीन पटनायक क्यों नेता बने हैं? नीतीश अब कितनों के नेता बन रहे हैं? शशिकला या रजनीकांत बने भी तो किस तरह के नेता होंगे?
राजकाज के इन बुनियादी सवालों का क्या कोई तर्कसंगत जवाब संभव है? और जब जनता के बीच जाकर सार्थक कर्म करने की प्रथा ही समाप्त हो गयी हो, तो अंतत: कासगंज से भीमगांव तक और गुड़गांव से जयपुर तक सत्ता के सारे झगड़े सतह पर निहायत शर्मनाक सतही बातों पर ही होते-सलटते रहेंगे. चुनाव हुए] तो नेक इरादे हर दल के चुनावी मसौदों में आपको मिल जायेंगे, पर हनुमान चालीसा की तरह उनको रटकर सदन में यह पूछनेवाले-बतानेवाले कि इनमें से किस पर कितना अमल हुआ, कहां हैं?
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