शोर ज्यादा, मतलब की बातें कम
II अभिजीत मुखोपाध्याय II अर्थशास्त्री जैसी कि उम्मीद थी, केंद्रीय बजट-कम-से-कम बजट भाषण- में खेती और ग्रामीण क्षेत्र पर बहुत ही अधिक फोकस किया गया है. न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लागत से डेढ़ गुना करने का फैसला 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने के सरकार के दीर्घकालिक महत्वाकांक्षा के अनुरूप है. वित्त मंत्री […]
II अभिजीत मुखोपाध्याय II
अर्थशास्त्री
जैसी कि उम्मीद थी, केंद्रीय बजट-कम-से-कम बजट भाषण- में खेती और ग्रामीण क्षेत्र पर बहुत ही अधिक फोकस किया गया है. न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लागत से डेढ़ गुना करने का फैसला 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने के सरकार के दीर्घकालिक महत्वाकांक्षा के अनुरूप है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने भाषण में कहा है कि नीति आयोग द्वारा तैयार प्रणाली के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जायेगा.
बाजार समितियों को जोड़ कर कृषि बाजार तैयार करने के लिए दो हजार करोड़ का आवंटन भी किसानों की आय बढ़ाने के उपायों में एक है. सरकार ग्रामीण आबादी को यह भरोसा दिलाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही है कि बाजार और वितरण की रणनीतियों को बेहतर कर किसानों की ऊपज का अच्छा दाम दिलाने के लिए लगी हुई है.
लेकिन, यह ध्यान देना होगा कि भारतीय खाद्य निगम और अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा जो खरीद होती है, वह कुल खाद्यान्न उत्पादन का बहुत छोटा हिस्सा ही है. मसलन, गेहूं की खरीद बड़े खरीदों में से एक है, परंतु बीते सालों में इस फसल के कुल उत्पादन के तीस फीसदी से भी कम हिस्से की खरीद होती है.
इस लिहाज से, एमएसपी में बढ़ोतरी किसानों की आय दोगुनी करने का एकमात्र रास्ता नहीं हो सकता है. इसके लिए सरकार को खेती में इनपुट सब्सिडी और अन्य उपाय करने होंगे. लेकिन, वैसा करने की जगह सरकार इधर-उधर के उपाय कर रही है, जैसे- बांस में 1290 करोड़ का निवेश. ऐसे उपाय कुल बजट आवंटन के काफी थोड़े हिस्से हैं.
बजट के जिस पक्ष को सरकार ज्यादा महत्व दे रही है, वह है ‘आयुष्मान भारत’ कार्यक्रम. इसमें दो भाग में आवंटन का प्रस्ताव है- 1,200 करोड़ खर्च होंगे नये स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना पर (देश के बड़े आकार के लिहाज से यह बहुत मामूली रकम है) तथा दूसरे हिस्से में 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी करीब 50 करोड़ लोगों को सालाना पांच लाख तक के स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था. यह जो दूसरा हिस्सा है, वह ‘यूनिवर्सल हेल्थ कवर’ जैसा दिखायी पड़ता है, और इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी 2019 के चुनाव तक इस योजना का अधिकाधिक लाभ पहुंचाने की कोशिश करेंगी. लेकिन इस महत्वाकांक्षी योजना के बारे में कुछ जरूरी सवाल पूछा जाना चाहिए.
आखिर स्वास्थ्य बीमा क्यों दिया जा रहा है? इसकी जगह ‘यूनिवर्सल फ्री बेसिक स्वास्थ्य सेवा’ क्यों नहीं दी जा रही है?
देशभर में अधिक-से-अधिक स्वास्थ्य और चिकित्सा केंद्रों की स्थापना के लिए अच्छा-खासा आवंटन क्यों नहीं किया जा रहा है. क्या बीमा देने से पहले से ही सवालों के घेरे में रहनेवाले निजी अस्पतालों को मरीजों का शोषण करने और ज्यादा पैसा लेने जैसे नतीजे नहीं होंगे?
क्या बीमा कंपनियों को सरकारी धन हस्तांतरित करने का मामला नहीं बनेगा, जबकि उसी धन से स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा तैयार करने में मदद मिल सकती है? ये सब वे सवाल हैं, जो तात्कालिक तौर पर पूछे जाने चाहिए, अन्यथा देश के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने जैसा अहम मुद्दा सार्वजनिक धन के नुकसान के अनावश्यक दुष्चक्र में फंस जायेगा.
स्वास्थ्य और ग्रामीण क्षेत्र पर ध्यान देने के इस शोर-शराबे में यदि आप ग्रामीण विकास, खेती और संबंधित कार्यों, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के हिसाब-किताब पर नजर डालें, तो इस बजट में कोई खास बदलाव आपको नजर नहीं आयेगा. यदि आप कुल बजट आवंटन के आलोक में देखें, तो खाते में कुछ कमी ही दिखेगी. वर्ष 2017-18 के संशोधित आकलन में इन क्षेत्रों में आवंटन क्रमशः 6.1, 2.55, 2.4 और 1.74 फीसदी था, जबकि इस बजट के आकलन में ये 5.65, 2.6, 2.24 और 1.8 फीसदी हैं.
इसके ऊपर स्वास्थ्य और शिक्षा अधिभार तीन से बढ़ा कर चार फीसदी कर दिया गया है. इस एक फीसदी की बढ़त से कर संग्रह में ठीक-ठाक वृद्धि होगी. हालांकि आंकड़ों को गंभीरता से देखने की जरूरत है, पर अधिभार बढ़ाकर स्वास्थ्य पर खर्च में बढ़ोतरी करना कोई बहुत समझदारी की बात नहीं है.
निश्चित रूप से इस बजट में मध्य वर्ग और वेतनभोगी लोगों के लिए ऐसा कुछ नहीं है, जिससे वे खुश हो सकें. यहां तक कि उद्योग जगत के लिए भी बहुत कुछ नहीं प्रस्तावित है कि उससे मांग को मजबूती मिले और अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक अवधि में बेहतर हो सके.
हालांकि सरकार द्वारा सीधे निवेश का मामला अब अतीत की बात हो चुकी है, पर यही वह चीज है, जिसकी भारतीय अर्थव्यवस्था को आज सबसे ज्यादा जरूरत है. लेकिन, 2008 के वित्तीय संकट के दौर में वित्तीय सहायता देने की यादें भी दुनियाभर में धुंधली हो चुकी हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं है.
सरकार द्वारा कोई भी सीधा आर्थिक हस्तक्षेप आजकल ‘पॉपुलिस्ट’ कहा जाता है, पर अभी के हालात को देखते हुए इस बजट में ऐसे कदमों की जरूरत थी, ताकि अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके. सरकार ने बहुत सावधानी से खेला है और कठिन राह चुनने के बजाये प्रोपेगैंडा का सहारा लिया है.