एक फिल्म, जिसने बढ़ाया मान, कुछ और बने, पर आसान नहीं
अनुज कुमार सिन्हा झारखंड आैर यहां के लाेगाें के लिए अच्छी खबर रही कि नाची से बांची फिल्म काे मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जूरी अवार्ड मिला. यह फिल्म डॉ रामदयाल मुंडा की जीवनी पर आधारित है. मेघनाथ आैर बीजू ने यह फिल्म बनायी थी. मेघनाथ-बिजू वही व्यक्ति हैं जिनकी फिल्माें काे 15 नेशनल आैर […]
अनुज कुमार सिन्हा
झारखंड आैर यहां के लाेगाें के लिए अच्छी खबर रही कि नाची से बांची फिल्म काे मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जूरी अवार्ड मिला. यह फिल्म डॉ रामदयाल मुंडा की जीवनी पर आधारित है. मेघनाथ आैर बीजू ने यह फिल्म बनायी थी. मेघनाथ-बिजू वही व्यक्ति हैं जिनकी फिल्माें काे 15 नेशनल आैर इंटरनेशनल अवार्ड मिल चुका है. हाल में गाेवा में जब फिल्म फेस्टिवल के लिए झारखंड काे अचानक बनी-बनायी फिल्म की जरूरत पड़ी ताे मेघनाथ की फिल्म गाड़ी लाेहरदगा, काेड़ा राजी, साेनागही पिंजड़ा आैर नाची से बांची का उपयाेग किया गया.
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अब आये फिल्म नीति पर. झारखंड में फिल्म नीति बनी आैर यहां बाहर से आकर फिल्म बनाने की संख्या बढ़ी. इसमें काेई दाे राय नहीं कि झारखंड प्राकृतिक ताैर पर इतना सुंदर है कि यहां सैकड़ाें स्थानाें पर फिल्म की शूटिंग हाे सकती है. हाे भी रही है. झारखंड सरकार इसे प्रमाेट करने के लिए आर्थिक सहयाेग भी देती है. अधिकांश फीचर फिल्म हाेती हैं. झारखंड की संस्कृति, झारखंड के मुद्दे, राष्ट्र निर्माण में झारखंड के लाेगाें के याेगदान आदि विषयाें पर बन रही या बननेवाली डॉक्यूमेंट्री फिल्में इनकी प्राथमिकता में नहीं रही है. ऐसे विषयाें पर काम करने आैर उन्हें सहयाेग करने की जरूरत है. बिरसा मुंडा इसी धरती के थे जिन्हाेंने अंगरेजाें के खिलाफ लाेहा लिया. सिदाे-कान्हू इसी झारखंड के थे. दरअसल पूरे पुराने छाेटानागपुर (सिर्फ झारखंड ही नहीं, इसमें मध्यप्रदेश, बंगाल, आेड़िशा का भी हिस्सा था) के लाेगाें (खास आदिवासियाें ने) देश के अन्य हिस्साें काे बनाने में बड़ा याेगदान दिया. ऐसा ही एक विषय है अंडमान के निर्माण का. छाेटानागपुर से आज से ठीक साै साल पहले यानी 1918 में मुंडा आैर उरांव आदिवासियाें का जत्था अंडमान गया था. ये आदिवासी मजदूरी करने गये थे. इनकी संख्या आरंभ में 400 थी आैर आज का जाे अंडमान है, उसकाे बसाने में, बनाने में छाेटानागपुर के आदिवासियाें का बड़ा याेगदान रहा. मेघनाथ अंडमान गये आदिवासियाें पर फिल्म बनाना चाहते हैं. लेकिन इस आेर सरकार या अफसराें का ध्यान नहीं है. ऐसी फिल्में झारखंड आैर यहां के आदिवासियाें का मान देश की नजर में बढ़ा सकती हैं.
हाल में विधानसभा की टीम अंडमान गयी थी. कुछ पत्रकार भी गये थे. देखा था कि कैसे अंडमान में रांची के नाम से एसाेसिएशन है. पूरी कॉलाेनी ही बसी है. पाेर्ट ब्लेयर में भगवान बिरसा मुंडा की मूर्ति लगी है. अंडमान गये झारखंड के अादिवासियाें का वहां के स्थानीय आदिवासियाें से टकराव नहीं हुआ बल्कि अंडमान के आदिवासियाें ने इन्हें स्वीकार किया. इसका उदाहरण है अंडमान में झारखंड से जुड़ी स्मृतियां. इस पर जर्मन लेखक फिलिप्प जेहमिश ने मिनी इंडिया नामक किताब लिखी है. इसमें अंडमान के निर्माण में छाेटानागपुर के आदिवासियाें के याेगदान का विस्तार से वर्णन है.
अगापित कुजूर की पुस्तक छाेटानागपुर के आदिवासियाें का अंडमान प्रवसन एवं विकास में याेगदान (1918-1990) इसका दूसरा उदाहरण है. अगर ऐसी फिल्में बनती हैं (साै साल पूरा हाेने का बेहतरीन अवसर है) ताे झारखंड आैर यहां के अादिवासियाें की छवि पूरे देश में निखरेगी. हां, आड़े आता है शूटिंग स्थल (70 फीसदी शूटिंग झारखंड में ही होना तय). अगर फिल्म नीति झारखंड में ही शूटिंग काे मानती है ताे ऐसी फिल्में कभी नहीं बन पायेगी. जाे आदिवासी काेलकाता से गये, समुंद्र में महीनाें की यात्रा की, पाेर्ट ब्लेयर में जाे मजदूर उतरे, वहां काम किया, सड़क बनायी, भवन बनाये, बड़े-बड़े काम किये, उसकी शूटिंग झारखंड में कैसे हाे सकती है.
अब समय आ गया है जब झारखंड की डॉक्यूमेंट्री (चाहे वह कहीं क्याें न बने, शूटिंग कहीं आैर क्याेें न हाे) काे भी उतना ही महत्व मिले,जितना अन्य फीचर फिल्माें काे मिलता है. ऐसा कर ही झारखंड की बेहतरीन आैर साझा संस्कृति काे पूरे देश में प्रचार किया जा सकता है. अगर नीतियां सहयाेग करें ताे निश्चित ताैर पर झारखंड की फिल्में भविष्य में एक से बढ़ कर एक अवार्ड जीतेगी आैर राज्य का नाम आगे बढ़ायेगी.