राजनीति का खेलाघर बनता असम

।। प्रमोद जोशी ।। वरिष्ठ पत्रकार देश का पूर्वोत्तर संवेदनशील क्षेत्र है, जो चीन, म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं से जुड़ता है. यहां के पांच राज्यों में 40 से ज्यादा अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. पिछले पांच साल में दो हजार से ज्यादा लोग यहां हिंसा के शिकार हो चुके हैं. असम के बोडोलैंड टैरीटोरियल ऑटोनॉमस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2014 5:19 AM

।। प्रमोद जोशी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

देश का पूर्वोत्तर संवेदनशील क्षेत्र है, जो चीन, म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं से जुड़ता है. यहां के पांच राज्यों में 40 से ज्यादा अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. पिछले पांच साल में दो हजार से ज्यादा लोग यहां हिंसा के शिकार हो चुके हैं.

असम के बोडोलैंड टैरीटोरियल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट्स (बीटीएडी) में तकरीबन दो साल बाद फिर से हुई हिंसा को मीडिया ने सहज भाव से हिंदू-मुसलिम समस्या की शक्ल दी है और कांग्रेस ने इस घटना के पीछे नरेंद्र मोदी के बयानों को जिम्मेवार ठहराया है. पर यह पूरा सच नहीं है. चुनाव के कारण इसे हम देश की राजनीति से अलग करके देख नहीं पा रहे हैं. असम की कांग्रेस सरकार ने अपनी बचत के लिए इस हिंसा का आरोप नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के उग्रवादियों के एक ग्रुप (सोंगजिबित) पर लगाया है.

पर एनडीएफबी का कहना है कि इसमें हमारा हाथ नहीं है. कांग्रेस का बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ गठबंधन है. इस ग्रुप का एक मंत्री भी गोगोई सरकार में है. हाल की हिंसा के पीछे इसी ग्रुप का हाथ बताया जाता है. माना जा रहा है कि चुनाव में वोट न डालने की सजा गैर-बोडो लोगों को दी गयी है, जो मूलत: बांग्ला या हिंदी भाषी और मुसलमान हैं. ये सब बांग्लादेशी नहीं हैं. अंदेशा है कि इस बार कोकराझार क्षेत्र से किसी गैर-बोडो प्रत्याशी की जीत हो.

चूंकि राज्य में कांग्रेस सरकार है, इसलिए केंद्र सरकार उसकी आलोचना भी नहीं कर सकती. पर इस मसले का पहला दोष राज्य सरकार का ही है. दो साल पहले 2012 की हिंसा की अनदेखी भी इसी तरह की गयी थी. देश के एक इलाके की घटना का असर दूसरे इलाके पर किस तरह पड़ता है, यह भी देखा जाना चाहिए. बोडो लोग एक अरसे से पूर्ण राज्य की मांग करते रहे हैं. पर बोडोलैंड काउंसिल बन जाने के बाद वह मांग पीछे चली गयी थी. इस साल तेलंगाना का फैसला होने के बाद इस मांग ने फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया है.

कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि घटना के तीन रोज पहले नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इस क्षेत्र से बांग्लादेशियों को खदेड़ा जायेगा. इस आरोप में तथ्यात्मक दोष है. यह सही है कि मोदी बांग्लादेश के घुसपैठियों को लेकर उत्तेजक बयान देते रहे हैं, पर उन्होंने तीन दिन पहले ऐसी कोई बात नहीं कही थी. वे 19 अप्रैल को असम गये थे. असम में 24 अप्रैल को चुनाव पूरे हो गये. क्या कारण है कि मोदी की बात का असर होने में दो हफ्ते लगे, वह भी मतदन के एक हफ्ते बाद?

बांग्लादेश से घुसपैठ और वहां से लोगों का अवैध आवागमन भाजपा की दिलचस्पी का विषय रहा है, पर बोडो समस्या आज की नहीं है. असम के चुनाव में बोडो ग्रुप महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं और विधानसभा के पिछले चुनाव के पहले तरुण गोगोई की सरकार ने इन समूहों के साथ रिश्ते कायम कर लिये थे.

बोडो अपनी पहचान अलग रखते हैं. उनका पहनावा अलग है और उनके पास एक समृद्ध संस्कृति है. अपनी इस पहचान के लिए वे शुरू से जागरूक हैं और अंगरेजी शासन में भी वे अपने एक अलग प्रशासनिक तंत्र की मांग करते रहे हैं. एक प्रकार से वे असम के मूल निवासी हैं और भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में वे मैदानी जनजाति के रूप में दर्ज हैं. शेष असम से वे अपने को अलग मानते हैं. उन्होंने देवनागरी को अपनी लिपि के रूप में अपनाया है. उनमें जनजातीय प्रागैतिहासिक धार्मिक परंपराएं हैं, जो उन्हें हिंदू धर्म से भी अलग करती हैं.

उनमें ईसाई भी हैं. सौ-डेढ़ सौ साल पहले असम के चाय बागानों व अन्य कामों के लिए अंगरेज बंगाल से मजदूर ले गये थे. बंगाल के भूमिहीन मजदूरों में मुसलमानों की संख्या बड़ी थी. मुसलिम मजदूर ही ज्यादातर वहां आये. 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय लाखों हिंदू-मुसलिम शरणार्थी भारत आये. उनमें से काफी लोग बाद में वापस चले गये. कुछ यहीं बस गये. अस्सी के दशक में सरकार ने इन लोगों को बसने का हक भी दे दिया.

बोडो लोग एक अरसे तक अपने लिए ‘उदयाचल’ नाम से अलग केंद्र शासित क्षेत्र की मांग करते रहे थे.

यही आंदोलन अलग राज्य बोडोलैंड के रूप में विकसित हुआ. 1993 में केंद्र सरकार ने बोडो लोगों की अलग राज्य की मांग को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि वे जिसे अपना क्षेत्र बता कर अलग राज्य का गठन किये जाने की मांग कर रहे थे, वहां भी वे अल्पमत में ही थे. अलबत्ता बोडो ऑटोनॉमस काउंसिल बनाने का फैसला किया गया, ताकि बोडो लोगों को अपनी इच्छा से काम करने का मौका मिले. तकरीबन एक दशक के आंदोलन के बाद 10 फरवरी, 2003 को बीटीएडी का गठन किया गया.

बीटीएडी असम के चार जिलों में फैला हुआ है-कोकराझार, बक्सा, चिरांग और उदलगिरी. ये जिले ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी तट पर स्थित हैं. इस क्षेत्र की आबादी में एक तिहाई बोडो हैं. यानी बहुमत गैरबोडो लोगों का है. इसके अलावा यहां आदिवासी और मुसलिम भी हैं. बीटीएडी का नियंत्रण जिस बोडोलैंड टैरीटोरियल काउंसिल के हाथों में है, उसमें फिर भी बोडो लोगों का बोलबाला है. यह काउंसिल इस उद्देश्य से बनी थी कि आनेवाले वर्षो में यह बोडो के समाजार्थिक विकास के लिए कार्य करेगी और बोडो भाषा, नस्ल और संस्कृति की पहचान को मिटने से रोकेगी.

बोडो लोगों के अनुसार काउंसिल के नियम घुसपैठी बांग्लादेशियों के भूमि अधिग्रहण में मददगार सिद्ध हो रहे हैं. बीटीसी के गठन के बाद कुछ सशस्त्र संगठनों ने हथियार डाल दिये थे. पर कुछ के पास अब भी हथियार हैं. हिंसा में अक्सर उनका इस्तेमाल होता है. सरकार हथियारों को जब्त करने में विफल साबित हो रही है. जुलाई-अगस्त 2012 में बोडो और गैरबोडो संघर्ष में सैकड़ों की मौत हुई थी और करीब चार लाख लोग बेघर हो गये थे. सोशल मीडिया में अतिरंजित कहानियों और तसवीरों के प्रकाशन के बाद देश के दूसरे इलाकों में पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ हिंसा हुई थी. रजा अकादमी जैसे गुटों ने, असम में मुसलमानों पर हमले होने का मुद्दा उछाल कर, मुंबई में विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया, जिसमें पुलिस से हिंसक झड़पें हुईं.

संयोग से उन्हीं दिनों म्यांमार में भी इसी किस्म के सांप्रदायिक हत्याकांड हुए थे. स्वाभाविक है कि भारतीय जनता पार्टी इसका राजनीतिक लाभ लेती है. पर इसका मौका कौन देता है? देश का पूर्वोत्तर संवेदनशील क्षेत्र है, जो चीन, म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं से जुड़ता है. यहां के पांच राज्यों में 40 से ज्यादा अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. पिछले पांच साल में दो हजार से ज्यादा लोग यहां हिंसा के शिकार हो चुके हैं. मोटे तौर पर यह समस्या इलाके के विकास में कमी और नौजवानों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी के कारण पैदा हुई है. इसे राजनीति का खेलाघर बनाना खतरनाक होगा.

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