वित्तीय कुप्रबंधन से उबरें
।।जेडी अग्रवाल।।(अर्थशास्त्री)वित्त वर्ष 2012-13 यानी पिछले वित्त वर्ष में विकास दर का 5 फीसदी पर पहुंचना अर्थव्यवस्था की बेहद खराब होती स्थिति को बयां करता है. विकास दर पिछले दस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है. इससे पहले के वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर 6.2 फीसदी थी. सरकार की तमाम कोशिशों […]
।।जेडी अग्रवाल।।
(अर्थशास्त्री)
वित्त वर्ष 2012-13 यानी पिछले वित्त वर्ष में विकास दर का 5 फीसदी पर पहुंचना अर्थव्यवस्था की बेहद खराब होती स्थिति को बयां करता है. विकास दर पिछले दस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है. इससे पहले के वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर 6.2 फीसदी थी. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद विकास दर के नीचे जाने से साफ जाहिर होता है कि आर्थिक नीतियां कारगर नहीं हो रही हैं. इसे मौजूदा केंद्र सरकार के खराब आर्थिक प्रबंधन का नतीजा माना जा सकता है.
यूपीए-2 सरकार के दौरान लगातार सामने आये घोटालों के कारण नीतिगत स्तर पर अनिश्चितता बनी रही, अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है. प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में गड़बड़ियों और मामला अदालत में पहुंचने के कारण कई योजनाएं लंबित पड़ी हैं. उद्योग से लेकर कृषि तक की विकास दर में कमी हो रही है. इन आंकड़ों के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की रेटिंग एक बार फिर कम होने का खतरा पैदा हो गया है. अगर अंतरराष्ट्रीय रेंटिंग एजेंसियां ऐसा करती हैं, तो इसका भारत में निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ेगा.
मौजूदा हालात के लिए केवल वैश्विक आर्थिक मंदी को दोष नहीं दिया जा सकता है. केंद्र सरकार के वित्तीय कुप्रबंधन के कारण राजस्व घाटा लगातार बढ़ता गया है. महंगाई रोक पाने में नाकामी और उच्च ब्याज दरों के कारण खपत पर प्रतिकूल असर पड़ा है. अहम आर्थिक नीतियों पर राजनीतिक गतिरोध के कारण निवेश प्रभावित हुआ है. इन कारणों से बाजार में पैसे का प्रवाह बाधित हुआ. आर्थिक विकास में अहम भूमिका निभानेवाले टेलीकॉम उद्योग पर टूजी स्पेक्ट्रम के 122 लाइसेंस सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द करने का प्रतिकूल असर पड़ा है. विदेशी कंपनियों के साथ करों को लेकर हुए विवाद के कारण भी विदेशी निवेश में कमी आयी. इतना ही नहीं, सरकारी योजनाओं के भी काफी सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ने के कारण विकास की गति पर ब्रेक लग गया.
इन कारणों से वित्त वर्ष 2012-13 में विदेशी पूंजी निवेश महज 3.5 फीसदी हुआ, जो कि पिछले वित्त वर्ष में 4.5 फीसदी था. जब हालात बेकाबू होने लगे तो सरकार ने सुधार के कुछ कदम उठाने शुरू किये. रिटेल, बीमा और विमानन क्षेत्र में एफडीआइ को मंजूरी देने का फैसला लिया गया. राजस्व घाटा कम करने के लिए खर्चो में कटौती के उपाय शुरू किये गये. रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती की घोषणा की. लेकिन इन उपायों से बाजार में भरोसा कायम नहीं हो पाया, क्योंकि जब तक महंगाई काबू में नहीं आयेगी, बाजार में पैसे के प्रवाह में तेजी नहीं आयेगी.
हालांकि महंगाई की दर कम होने के संकेत मिल रहे हैं, पर अर्थव्यवस्था की नींव इतनी कमजोर हो गयी है कि इसे पटरी पर लाने के लिए कई साहसिक फैसले लेने होंगे. लेकिन कार्यकाल के आखिरी साल में एक गंठबंधन सरकार से किसी कड़े फैसले की उम्मीद बेमानी है. सरकार ने अर्थव्यवस्था की खामियां दूर करने के लिए आधे-अधूरे कदम उठाये हैं. एक ओर सरकारी खर्च में कटौती, सब्सिडी कम करने के उपाय किये गये, तो दूसरी ओर लोकलुभावन नीतियों को भी लागू करने की कोशिश की गयी. इसके अलावा व्यापार घाटा भी लगातार बढ़ता गया. साथ ही वैश्विक आर्थिक स्थितियों के कारण भी विदेशी निवेश पर असर पड़ा. अमेरिका और यूरोपीय देशों में आउटसोर्सिग नियमों को सख्त बनाये जाने के कारण सॉफ्टवेयर उद्योग का विकास प्रभावित हो रहा है.
हालांकि वैश्विक आर्थिक हालात में भारत के लिए संभावनाएं भी काफी हैं. वैश्विक कंपनियां भारत को सबसे बड़ा उभरता उपभोक्ता बाजार के तौर पर देख रही है, पर महंगाई और राजनीतिक अनिश्चितता के कारण वे निवेश करने से कतरा रही हैं. मौजूदा हालात में स्थितियों में बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है, पर भरोसा बहाल करने के लिए रिजर्व बैंक और सरकार को ब्याज दरों को और कम करने के उपाय अपनाने चाहिए. रिजर्व बैंक को बाजार से बॉंड खरीदने तथा मौद्रिक नीति को और आसान बनाने की पहल करनी चाहिए. चालू खाते के घाटे पर नियंत्रण पाने के उपायों पर भी गौर करना होगा. साथ में सामान्य मॉनसून से भी उत्पादन बढ़ने की उम्मीद है.
मौजूदा आंकड़ों से जाहिर होता है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में विकास धीमा हो रहा है. विकास दर प्रभावित होने से रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं. अगर हालात को काबू में करने के गंभीर प्रयास नहीं किये गये, तो भारतीय अर्थव्यवस्था एक बार फिर 1991 की स्थिति में पहुंच सकती है.