त्रिपुरा : ”माणिक” के बदले ”हीरा”

II रविभूषण II वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com विश्व के किसी भी नेता की तुलना में नरेंद्र मोदी शब्दाडंबर, शब्दजाल, शब्द चातुर्य और श्लेष-प्रयोग में अकेले और अनोखे हैं. शब्द क्रीड़ा उन्हें प्रिय है और उनकी वाक्पटुता और शब्दाभिप्राय को बदलने की क्षमता-दक्षता का अन्य कोई उदाहरण नहीं है. ‘माणिक’ और ‘हीरा’ दोनों नवरत्न हैं, पर त्रिपुरा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 12, 2018 6:21 AM

II रविभूषण II

वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

विश्व के किसी भी नेता की तुलना में नरेंद्र मोदी शब्दाडंबर, शब्दजाल, शब्द चातुर्य और श्लेष-प्रयोग में अकेले और अनोखे हैं. शब्द क्रीड़ा उन्हें प्रिय है और उनकी वाक्पटुता और शब्दाभिप्राय को बदलने की क्षमता-दक्षता का अन्य कोई उदाहरण नहीं है. ‘माणिक’ और ‘हीरा’ दोनों नवरत्न हैं, पर त्रिपुरा विधानसभा की चुनाव-रैली में उन्होंने त्रिपुरा राज्य को ‘माणिक’ के स्थान पर ‘हीरा’ की आवश्यकता बतायी. उनके अनुसार, त्रिपुरा की जनता ने एक गलत ‘माणिक’ पहन रखा है. अब उसे ‘हीरा’ पहनना चाहिए. हिंदी शब्द ‘हीरा’ को उन्होंने अंग्रेजी के वर्ण एच, आई, आर और ए से जोड़कर अपने मनोनुकूल शब्द निर्मित किया- हाई वे, आई वे, रोड्स और एयरवेज.

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार का देश में कोई उदाहरण नहीं है. देश के सबसे गरीब इस मुख्यमंत्री के पास कोई संपत्ति और कार नहीं है. अपने चुनावी हलफनामे में उन्होंने पास में 1,520 रुपये होने और बैंक में 2,410 रुपये होने की घोषणा की है. 69 वर्षीय यह मुख्यमंत्री अपना सारा वेतन अपनी पार्टी (माकपा) को दे देता है और पार्टी उसे खर्च के लिए नौ हजार प्रति माह देती है.

त्रिपुरा में बीस वर्ष से माणिक सरकार मुख्यमंत्री हैं. और इस राज्य में वाम मोर्चा की सरकार पच्चीस वर्ष से है. उजला कुरता पहननेवाले माणिक सरकार के ‘उजले कुरते’ के भीतर मोदी एक ‘काला पक्ष’ देखते हैं. त्रिपुरा का विधानसभा चुनाव कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है.

भाजपा अब ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के बाद ‘वाम-मुक्त भारत’ और ‘विपक्ष-मुक्त भारत’ का नारा (स्लोगन) दे रही है. पश्चिम बंगाल से उखड़ जाने के बाद केरल और त्रिपुरा में ही वाम दल सक्रिय है. इन दो राज्यों में उनकी सरकार है. त्रिपुरा के भाजपा प्रभारी (पूर्व संघ प्रचारक) सुनील देवधर ने कहा है कि केरल और बंगाल में वाम की लड़ाई कांग्रेस और तृणमूल से रही है और अब भारत के चुनावी इतिहास में त्रिपुरा पहला उदाहरण है, जहां राज्य स्तर पर भाजपा (दक्षिणपंथी) और वामपंथी पार्टियां आमने-सामने लड़ रही हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव (2013) में भाजपा को त्रिपुरा में मात्र 1.54 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे और मात्र दो वर्ष बाद 2015 में उसे स्थानीय निकाय चुनावों में 14.7 प्रतिशत मत मिले. 2013 में वहां भाजपा की सदस्य-संस्था मात्र कुछ हजार थी, जो अब बढ़कर लगभग दो लाख हो गयी है.

2013 के चुनाव में 50 विधानसभा सीटों में से 49 सीट पर भाजपा ने अपनी जमानत राशि खो दी थी. इस चुनाव में वाम मोर्चा को 60 में से 50 सीटें मिली थीं- माकपा को 49 और भाकपा को एक. शेष दस सीटें कांग्रेस को मिली थीं. इन दस सीटों में से कांग्रेस के छह विधायक तृणमूल कांग्रेस में गये और कुछ समय बाद वे सब भाजपा में चले गये.

भाजपा और संघ परिवार की चुनावी रणनीति की तरह अन्य दलों की चुनावी रणनीति नहीं होती. इस चुनावी रणनीति को समझकर ही भाजपा का मुकाबला किया जा सकता है. वह एक साथ कई मोर्चों पर लड़ती है और उन नये मोर्चों को खोलती है, जिसकी कल्पना विपक्षी दल नहीं कर पाते हैं. बिना चुनाव जीते त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.

आठ जिले, 23 अनुमंडल और 58 प्रखंड वाले त्रिपुरा की कुल आबादी 40.73 लाख है. इसका साक्षरता दर सर्वाधिक है. 95 प्रतिशत से अधिक लोगों को अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाएं हैं. सिंचाई योग्य सभी भूमि सिंचित है और प्रतिव्यक्ति आय आठ गुना बढ़ी है. त्रिपुरा में बंगाली 69 प्रतिशत हैं और आदिवासी 31 प्रतिशत. 20 विधानसभा सीटों में आदिवासी वोट प्रमुख हैं. पिछले चुनाव में वामदल को इनमें से 18 सीटें मिली थीं. लोकसभा की दोनों सीटें माकपा के पास हैं. 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजाति और 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं.

जिस इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आइपीएफटी) का गठन 1997 में हुआ था, वह अब भाजपा के साथ है. त्रिपुरा विधानसभा चुनाव भाजपा लड़ रही है, पर मोदी अपने भाषण में भारत की जनता द्वारा चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं. उनके अनुसार त्रिपुरा की वर्तमान सरकार (माणिक सरकार) अपने विरुद्ध बोलनेवालों के लिए भय का वातावरण खड़ा कर रही है. भाजपा की कला यह है कि उसके विरुद्ध जो आरोप लगाये जाते हैं, उन आरोपों को वह दूसरों के विरुद्ध लगा देती है. उसके प्रचार तंत्र का कोई सानी नहीं.

दिनेश कानजी की मराठी पुस्तक ‘त्रिपुरातील अराजकता लाल चेहरा: माणिक सरकार’ का राहुल पारवा ने हिंदी अनुवाद ‘माणिक सरकार दृश्यम और सत्यम: त्रिपुरा के लाल अराजक की कहानी’ नाम से किया और बांग्ला में यह अनुवाद ‘माणिक राजार देशे’ नाम से है, जिसमें माणिक सरकार की एक भिन्न छवि पेश की गयी है. अब यह पुस्तक मतदाताओं के बीच वितरित की जायेगी.

चुनाव से पहले फिल्म जैसे सशक्त माध्यम सिनेमा पर भी भाजपा की नजर रहती है. सुशीला शर्मन की एक घंटा पचास मिनट की फिल्म ‘लाल सरकार’ चुनाव के पहले रीलीज हो रही है. भाजपा की कैंपेन पुस्तिका ‘सप्तम बेतन कमीशन केनो चाई’ में राज्यपाल तथागत राय की फोटो है. ‘लाल सरकार’ फिल्म में माकपा कार्यकर्ताओं को अपराधी दिखाया गया है.

भाजपा को वाम विचारधारा से भय है. पश्चिम बंगाल के पहले वह त्रिपुरा में अपने को स्थापित करने में लगी है. उसे ‘माणिक’ (माणिक सरकार) के बदले ‘हीरा’ चाहिए. ‘चलो पल्टाई’.

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