भारत-फिलीस्तीन संबंध-संतुलन

II एम रेयाज II असिस्टेंट प्रोफेसर, आलिया यूनिवर्सिटी, कोलकाता mail@reyaz.in इसी महीने की 10 तारीख को नरेंद्र मोदी का वेस्ट बैंक में रमल्ला जाना किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा फिलीस्तीन की इस राजधानी का पहला दौरा था. इसके साथ ही इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से उनकी प्रगाढ़ मित्रता की पृष्ठभूमि में यह भारत द्वारा फिलीस्तीनी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 13, 2018 3:54 AM
II एम रेयाज II
असिस्टेंट प्रोफेसर, आलिया यूनिवर्सिटी, कोलकाता
mail@reyaz.in
इसी महीने की 10 तारीख को नरेंद्र मोदी का वेस्ट बैंक में रमल्ला जाना किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा फिलीस्तीन की इस राजधानी का पहला दौरा था. इसके साथ ही इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से उनकी प्रगाढ़ मित्रता की पृष्ठभूमि में यह भारत द्वारा फिलीस्तीनी हितों के सतत समर्थन का संकेत भी करता है. फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री का गर्मजोशी से स्वागत किया गया और उन्होंने नरेंद्र मोदी को फिलीस्तीन का सर्वोच्च नागरिक सम्मान से भी नवाजा.
भारत ने शुरू से ही फिलीस्तीन का समर्थन किया है. अरब देशों के बाहर हम दुनिया के पहले वैसे देश थे, जिसने फिलीस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) को फिलीस्तीनियों का एकमात्र प्रतिनिधि होने की मान्यता दी. अरब देशों की ही तरह, भारत ने भी इस्राइल के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किये.
पर शीतयुद्ध के पश्चात अमेरिका के साथ निकटता बढ़ाना भारत की मजबूरी हो गयी और इसके साथ ही इसने यह भी महसूस किया कि इस्राइल को दरकिनार कर ऐसा नहीं किया जा सकता. फिर तो भारत ने इस्राइल के साथ अपनी निकटता सायास विकसित की और 1992 में उसके साथ पूर्ण राजनयिक संबंध भी स्थापित किया.इस्राइल के साथ अपने घनिष्ठ होते सहयोग के बावजूद भारत ने उसे कभी भी अधिक प्रचारित न किया, क्योंकि उससे स्वदेश के मुसलिम अल्पसंख्यकों की नाराजगी मोल लेने का खतरा था.
पर वर्ष 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्तासीन होने के साथ स्थितियां बदल गयीं. पिछले वर्ष मोदी की इस्राइल यात्रा के बाद से ही अनेक समीक्षकों ने उससे मोदी की बढ़ती निकटता को संघ परिवार की मुसलिम-विरोधी नीतियों का ही एक विस्तार मानना आरंभ कर दिया.
पिछले महीने नेतन्याहू की भारत यात्रा के समय एक बार फिर उसी मत की पुष्टि होती बतायी गयी. पर, जो कुछ वास्तव में चिंताजनक है, वह यह कि हिंदूवादी शक्तियों के पैरोकारों को उन फिलीस्तीनियों के सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से उनके प्रति अपनी नफरत के इजहार से भी गुरेज न हुआ, जो इस्राइली सेना के द्वारा प्रतिदिन प्रताड़ित होते रहते हैं.
हालांकि, फिलीस्तीन में बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहा कि ‘मैं अपने साथ भारतीयों की सद्भावना तथा उनका अभिवादन लाया हूं,’ मगर यह केवल एक राजनयिक मजबूरी में कहा गया वक्तव्य मात्र बनकर न रह जाये, इसके लिए मोदी को स्वदेश में अपने समर्थक वर्गों को भी फिलीस्तीन हितैषी बनाना होगा.
इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी देश के वैदेशिक संबंध उसकी गृह नीति के ही अक्स होते हैं, किंतु फिलीस्तीन के साथ भारत के संबंधों को हिंदू-मुस्लिम नजरिये से देखना न तो राष्ट्रहित में होगा और न ही भारत के विदेश मंत्रालय में बैठे सामरिक विशेषज्ञों के मतानुकूल ही. यह भारत का विवेक ही था, जिसके चलते इसने संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम को इस्राइल की राजधानी बनाने के डोनाल्ड ट्रंप की योजना के विरोध में मतदान किया.
सत्ता में आने के बाद, नरेंद्र मोदी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह इस्राइल एवं फिलीस्तीन के साथ अपने संबंधों को परस्पर असंलग्न करने की कोशिश करेगी. अपनी इसी ऐतिहासिक यात्रा में मोदी ने वेस्ट बैंक तक पहुंचने के लिए जॉर्डन होकर जानेवाले मार्ग का चयन किया, न कि ज्यादातर पश्चिमी राजनेताओं की भांति इस्राइल होकर. ज्ञातव्य है कि फिलीस्तीन में इस्राइल किसी हवाई अड्डे के परिचालन की अनुमति नहीं देता.
यह एक अहम संकेत है, क्योंकि पिछले वर्ष अपनी इस्राइल यात्रा के ही वक्त मोदी ने फिलीस्तीन का भी दौरा कर लेने से जान-बूझकर परहेज किया. वर्ष 2015 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पश्चिमी एशिया की यात्रा की, तो वे जॉर्डन एवं फिलीस्तीन के दौरे के बाद इस्राइल पहुंचे थे.
हालांकि, फिलीस्तीन के कट्टर समर्थक यह कहा करते हैं कि इस्राइल द्वारा वहां अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों के सतत उल्लंघन की वजह से भारत को इस्राइल के साथ या तो कोई संबंध नहीं रखने चाहिए, अथवा उन्हें सीमित कर देना चाहिए. लेकिन, यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मूल्यों तथा अधिकारों के समस्त जयघोष के बावजूद विदेशी संबंध यथार्थवाद की धरातल पर स्थित और जमीनी सियासत में बद्धमूल होते हैं.
दूसरी बात यह है कि इस्राइल के साथ भारत के संबंध कोई अचानक ही विकसित नहीं हुए हैं और इसका अब सिर्फ इसलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की सरकार उसे छिपा-छिपी के उस दौर से बाहर निकालकर दिन के उजाले में ले आयी है.कोई इसे पसंद करे या नहीं, भारत के सुख-दुख में इस्राइल एक भरोसेमंद दोस्त बनकर उभरा है.
इसके अलावा, सऊदी अरब के शाह सहित अनेक अरब देश इस्राइल के साथ द्विपक्षीय संबंध विकसित करने में लगे हैं, भले ही वे इसे प्रचारित नहीं करते. भारत ने अब तक इस्राइल, सऊदी अरब तथा ईरान के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को बड़ी नजाकत से संतुलित कर रखा है, क्योंकि उनमें से कोई भी किसी को नहीं सुहाता. पर, इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्राइल और फिलीस्तीन के मामले में ऐसा करना कहीं अधिक कठिन है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

Next Article

Exit mobile version