मालदीव : उधेड़बुन और चुनौतियां
II मृणाल पांडे II वरिष्ठ पत्रकार mrinal.pande@gmail.com कहने को हिंद महासागर में 1,192 द्वीपों का नन्हा समूह मालदीव एक बहुत छोटा सा देश है. ग्लोबल वार्मिंग के अध्येता कह रहे हैं, अगर गर्मी इसी तरह बढ़ती गयी और समुद्र की सतह ऊंची होती रही, तो इस देश का अस्तित्व सबसे पहले मिट जायेगा, पर इसके […]
II मृणाल पांडे II
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
कहने को हिंद महासागर में 1,192 द्वीपों का नन्हा समूह मालदीव एक बहुत छोटा सा देश है. ग्लोबल वार्मिंग के अध्येता कह रहे हैं, अगर गर्मी इसी तरह बढ़ती गयी और समुद्र की सतह ऊंची होती रही, तो इस देश का अस्तित्व सबसे पहले मिट जायेगा, पर इसके बाद भी कई सुंदर तटों, दुर्लभ समुद्री जीवों और हरीतिमा से लैस इस द्वीप समूह में हर बरस 15 लाख पर्यटक पहुंच रहे हैं. इधर दक्षिण एशिया में इसका भूराजनयिक महत्व भी लगातार बढ़ रहा है.
बीते एक फरवरी को जब मालदीव के सुप्रीम कोर्ट ने (कथित तौर से तिकड़म से) सत्तासीन राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन को आदेश दिया कि वह आतंकवाद के आरोपों पर जेल भेजे गये विपक्ष के बारह सांसदों को तुरंत रिहा कर उनकी सांसदी बहाल करें, तो दुनिया में हलचल बढ़ गयी. यमीन ने अदालती हुक्म की तामील नहीं की. उल्टे इमरजेंसी लागू कर कथित तौर से दोस्त चीन की शह पर विपक्ष की तमाम मांगें नकारते हुए चीफ जस्टिस सहित जजों को ही बदल दिया.
फिलहाल लंदन और श्रीलंका के बीच निर्वासित जीवन जी रहे पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद और मालदीव का विपक्ष, भारत सरकार के आगे लोकतंत्र बहाली में मदद करने की गुहार लगा रहे हैं. 1988 में जब एक विद्रोही गुट ने तख्तापलट की कोशिश की थी, तब भारत ने उस संकट में मालदीव में सेना भेजकर साजिश को नाकाम कर दिया था. इसलिए यमीन के विरोधियों को क्षीण उम्मीद है कि शायद इस बार भी भारत हस्तक्षेप करेगा. लेकिन, चीन अब दुनिया की दूसरी महाशक्ति है, जिसे चुनौती देने का मतलब है चीन से टकराना.
चीन से मालदीव की नजदीकियां एकाध साल में नहीं बनी हैं. चीन ने 21वीं सदी में अपने विस्तारवादी प्लान के तहत क्षेत्र में नये दोस्त बनाने में गहरा शोध व काम किया है.
2006 में मालदीव ने बीजिंग में अपना दूतावास चीन में खोला और इसका लाभ लेते हुए चीन ने भी 2011 में मित्र मालदीव की राजधानी माले में अपना दूतावास खोल दिया. इसके बाद भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका से मालदीव तक उसकी आवाजाही काफी बढ़ी और इसी के साथ उसने (डोकलाम तथा अरुणाचल में घुसकर) भारत पर आंखें तरेरीं. यह विडंबना है कि मुहम्मद नशीद ने खुद कभी राजनीतिक वजहों से (2010 चुनाव जीतने को) सबके लिए आवास का लोकलुभावन झुनझुना बजाते हुए बड़े निर्माण के लिए मालदीव में बड़ा चीनी वित्तीय निवेश न्योत लिया था.
राजनय की बिसात पर गोटियां बिठाने में 2012 में चीनी राष्ट्रपति शी की सद्भाव यात्रा भी काफी सहायक साबित हुई, जिसके प्रताप से हवाई अड्डा बनाने के लिए भारत को दिया जा चुका 50 करोड़ डाॅलर का ठेका निरस्त कर उसे चीन (की राज्य निर्माण यूनिट) को सौंप दिया गया. 2015 में चीन द्वारा मालदीव की कंपनियों के अधिकृत करने को जायज बना दिसंबर 2017 में चीन से मुक्त व्यापार को विपक्ष के विरोध के बावजूद हरी झंडी मिल गयी.
पूर्व राष्ट्रपति नशीद के अनुसार, चीन मालदीव के 17 द्वीप कब्जे में ले चुका है. कुल मिलाकर अब मालदीव में भारत की कम चीन की ज्यादा तूती बोलती है.
चीन के बाद मालदीव के मित्रों में अगला नंबर सऊदियों का है, जिनके पैसे से वहां कट्टरपंथी इस्लाम को काफी बढ़ावा मिला है. वहीं अमेरिका तथा यूरोप सहित दक्षिण एशिया क्षेत्र के सारे देश स्थिति को लेकर सतर्क तो हैं, लेकिन मालदीव में सीधा दखल देकर चीन की नाखुशी कोई मोल नहीं लेना चाहता. अपनी खाल बचाने को भारत पर ही दबाव बनाया जा रहा है कि बेटा भारत, तुम सूली पर चढ़ जाओ, हम तुम्हारे साथ हैं. दूसरी तरफ, आम चुनावों की पूर्व संध्या पर उसके सिर पर हजारों दिक्कतें हैं.
समय काफी निकल चुका है और आर्थिक सामरिक विस्तार को तत्पर महाशक्ति चीन के लिए मालदीव आज अपने समुद्री जहाजों को श्रीलंका से सीधे पाकिस्तानी ग्वादर बंदरगाह तक तैराने की राह के अधबीच स्थित पड़ाव बन चुका है. भारत ने सैनिक दखलंदाजी की, तो भारत के चौगिर्द अपनी गोटियां बिठा चुका चीन मालदीव सरकार के पक्ष में खड़ा होकर उसे सीधे नेपाल, श्रीलंका से ग्वादर तक तट पर बड़ी आसानी से घेर सकता है. चुनाव की पूर्व संध्या पर कोई समझदार शासक ऐसी स्थिति क्यों चाहेगा?
सऊदी अरब ने मालदीव को कर्जा चुकाई के लिए करोड़ों का कर्जा दिया है, जिससे वहां कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम को हवा मिली है और, ‘मेरा धर्म, मेरा देश’ (माय नेशन माय रिलीजन) के नारे के साथ रैलियां होने लगी हैं.
प्रधानमंत्री की हालिया फिलिस्तीन यात्रा के बाद एक राह यह निकलती है कि भारत सऊदी अरब से बीच-बचाव करने को कहे, पर दूर होने के बावजूद मध्य एशिया के मुस्लिम देशों के लिए मालदीव जैसा शत-प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला देश उस बिरादरी का प्रमुख भाग है, जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है.
वह अंतरराष्ट्रीय राजनय में भारत को किसी भी तरह से वाहवाही मिलने में मदद नहीं करेगा. मालदीव उसकी नजरों में आज भारत की बगल का ऐसा इलाका है, जहां से मौका पाते ही हजार सूइयां चुभो कर कश्मीर तक फैले छायायुद्ध को भारत के लिए और खौफनाक एवं रक्तरंजित बनाया जा सकेगा. भारत मानो मंत्रविद्ध होकर एक अंधी गली में आ खड़ा है.
उसे पता है कि लोकतांत्रिक न्याय का तकाजा है कि वह नशीद की और जेल में जबरन कैद विपक्ष की सुने और न्याय-बहाली करवाकर तानाशाह बनते राष्ट्रपति यमीन को सत्ता से बेदखल करे, पर इस समय उसका हस्तक्षेप एक ऐसे अंतहीन युद्ध में विसर्जित हो सकता है, जिसमें अमेरिका, यूरोप या सऊदी अरब या जेनेवा, कोई खुलकर चीन का विरोध नहीं करेगा.
अजीब अनसुलझी स्थिति है. मुहम्मद नशीद भी मानते हैं कि मालदीव में जो गुत्थियां उलझी हुई हैं, वे मूलत: घरेलू और तनिक बढ़ने पर भी इलाकाई ही हैं. चीन प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं कर रहा और इराक की छाछ से जला अमेरिका तो कतई युद्ध में नहीं उतरेगा. भारत की इस्राइल से मिताई इन दिनों जिस तेजी से बढ़ रही है, उससे मुस्लिम बिरादरी के बीच भारत की मौजूदा सरकार को लेकर भी वैचारिक कुहासा घट नहीं पा रहा.
रूस भी चीन की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता, और दो अन्य इलाकाई दोस्तों, जापान और आॅस्ट्रेलिया ने भी तोताचश्मी ओढ़ ली है. तो अच्छा न सही, पर सुरक्षित रास्ता यही दिखायी देता है कि भारत भी कुछ दिन शून्यवत खामोश बैठ जाये. तीन दशक से जारी नाटक चुटकी बजाते तो हल होने से रहा.