दागियों को न मिले शीर्ष पद

II रामबहादुर राय II वरिष्ठ पत्रकार rbrai118@gmail.com मुख्यमंत्रियों की संपत्ति और उनके ऊपर आपराधिक मामलों पर एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) की अभी आयी रिपोर्ट यह बतलाती है कि भारत में करीब 35 प्रतिशत मुख्यमंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. वहीं 81 प्रतिशत मुख्यमंत्री करोड़पति हैं. इस रिपोर्ट के एतबार से दो पहलू नजर आते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 14, 2018 4:27 AM
II रामबहादुर राय II
वरिष्ठ पत्रकार
rbrai118@gmail.com
मुख्यमंत्रियों की संपत्ति और उनके ऊपर आपराधिक मामलों पर एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) की अभी आयी रिपोर्ट यह बतलाती है कि भारत में करीब 35 प्रतिशत मुख्यमंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. वहीं 81 प्रतिशत मुख्यमंत्री करोड़पति हैं. इस रिपोर्ट के एतबार से दो पहलू नजर आते हैं.
पहला तो यह कि राजनीति करनेवाले या पार्टियों के कार्यकर्ता आदि समय-समय पर सत्याग्रह-आंदोलन करते रहते हैं. और आंदोलनकारियों को लेकर हमारे यहां एक कानून है, जो अंग्रेजाें ने 1860 में बनाया था, जिसमें आज तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. वह कानून है- यदि एक आम नागरिक अपराधी है और वह जिन धाराओं में जेल जाता है, उसी तरह की धाराओं में आंदोलन कर रहे राजनीतिक कार्यकर्ता भी जेल जाते हैं. यानी जब कोई नेता या कार्यकर्ता आंदोलन में जेल गया, तो उस पर भी वही धाराएं लगती हैं, जो एक अपराधी पर लगती हैं. जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि अब आपको अपना हुलिया बताना होगा, अपनी संपत्ति बतानी होगी, तो इस प्रक्रिया के तहत हुलिया बताने में यह बताना होता है कि आपके ऊपर कौन-कौन से मुकदमे चल रहे हैं.
इसके लिए चुनाव आयोग उपाय बता रहा है, जो उचित हो सकता है- अगर आंदोलन करनेवालों के लिए अलग धाराओं का प्रावधान नहीं बना सकते, तो कम से कम यह तो तय होना चाहिए कि जिन पर संगीन आपराधिक मुकदमे चल रहे हों, उनको चुनाव लड़ने की इजाजत ही न मिले. अभी तो यह हो रहा है कि जिन पर संगीन आरोप हैं, वे भी सांसद-विधायक बने रहते हैं और उनके मुकदमों का कोई निपटारा भी नहीं होता है. न्यायपालिका से हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह इसका निपटारा करेगी. हां, यह हो सकता है कि जन-प्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन करके चुनाव से उन लोगों को दूर रखा जा सकता है, जो अपराधी किस्म के हैं. मैं यह साफ कहता हूं कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी परीक्षा है.
अगर जन-प्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन जब तक नहीं होता है, तब तक यह तो लोग मान सकते हैं कि पार्टियां दागियों को मंत्री पद से वंचित रखें, जब तक उन पर लगे आरोपों का निपटारा न हो जाये. लेकिन, जिस तरह की राजनीतिक कार्य प्रणाली है, उसमें शीर्ष नेत‍ृत्व पर यह निर्भर करता है कि इस तरह का परहेज वह रखते हैं या नहीं. दूसरी बात यह है कि राजनीतिक बदले की कार्रवाई से भी बहुत सारे मुकदमे दायर किये जाते हैं.
मंत्रिमंडल के गठन के समय में शीर्ष नेतृत्व क्या करता है, इस बात को उसी पर छोड़ दीजिये. लेकिन, यह जरूर हो सकता है कि एक स्वतंत्र एजेंसी, या चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को अगर यह अधिकार दे दिया जाये कि वह निर्णय करे कि नामांकन भरनेवाले उम्मीदवार की पृष्ठभूमि की वह जांच करे और अनुचित पाने पर उसे चुनाव लड़ने से रोक सके, तो इससे शुरू में ही सफाई शुरू हो जायेगी. यह सिलसिला जब शुरू होगा, तब मजबूरन राजनीतिक नेतृत्व को यह देखना पड़ेगा कि वह बेदाग लोगों को ही टिकट दे. अभी तो चुनाव जीतने में समर्थ व्यक्ति को ही टिकट दिया जाता है. और आजकल समर्थ वही है, जिसके पास खूब पैसा है और डंडे का जोर है.
जहां तक मुख्यमंत्रियों की संपत्ति और उन पर आपराधिक मामलों का सवाल है, तो इसमें जिस पर दो धाराएं- खासकर 302 और 307, लगी हैं, तो ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए. जहां तक मुख्यमंत्रियों की संपत्ति का मामला है, तो अब एक सिलसिला शुरू हुआ है कि लोग अपनी संपत्ति घोषित कर रहे हैं, जिससे उन पर एक नैतिक दबाव भी आयेगा.
एक घोषणा की व्यवस्था होनी चाहिए कि मुख्यमंत्री होने से पहले किसी की संपत्ति कितनी थी और मुख्यमंत्री बनने के कुछ वर्षों में ही उसकी संपत्ति कितनी बढ़ी और उस बढ़ोतरी का स्रोत क्या है.केवल संपत्ति की घोषणा काफी नहीं है.
हमारे देश में सत्ता हमेशा से नैतिक लोगों को दी जाती रही है, जो बेदाग हैं और जिन पर आपराधिक मुकदमे न चल रहे हों. लेकिन, जब से चुनावों में पैसे का प्रभाव बढ़ा है, करीब 1971 से, तब से राजनीति का स्वरूप भी बदल गया है और उम्मीदवारों के चयन के बारे में दलों में जो नेतृत्व की कसौटी है, वह भी पूरी तरह से बदल गयी है. पहले के जमाने में, विपक्षी दल को अगर यह पता होता था कि वह चुनाव हारेगा, फिर भी वह ईमानदार व्यक्ति को उम्मीदवार बनाता था और तब चुनाव को राजनीतिक बहस के लिए इस्तेमाल किया जाता था.
मसलन, डॉ लोहिया ने 1962 में ग्वालियर रियासत की महारानी के खिलाफ एक सफाईकर्मी सुखो रानी को उम्मीदवार बनाया था और कहा था अगर सुखो रानी जीतती हैं, तो इससे सामाजिक और आर्थिक क्रांति की शुरुआत होगी. इसका मतलब था गैर-बराबरी और राजे-रजवाड़े के खिलाफ चुनाव लड़ने की शुरुआत करना. लेकिन, आजकल ऐसा होना संभव नहीं है.
आजकल ज्यादातर राजनीतिक दलों में यह देखने को मिलता है कि वे जिनको उम्मीदवार बनाते हैं, यह जानने की कोशिश नहीं होती कि उनकी पृष्ठभूमि क्या है, उसके संस्कार क्या हैं और क्यों वह राजनीति में आया है. सिर्फ एक ही चीज जानने की कोशिश रहती है कि क्या वह उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है. और यह सोच लगभग सभी दलों में है. जीताऊ उम्मीदवार खोजने की जैसे-जैसे प्रवृत्ति बढ़ी है, वैसे-वैसे उन लोगों को उम्मीदवार बनाया जाने लगा है, जो अपने क्षेत्र में ‘दादा’ के रूप में मशहूर हों. मुझे याद है कि जब मैं सत्तर के दशक में बनारस में पढ़ता था, तब वहां कुछ स्थानीय दादा होते थे, जिनका इस्तेमाल कांग्रेस चुनाव जीतने में करती थी, लेकिन उनको कभी उम्मीदवार नहीं बनाती थी.
उस जमाने में गुंडागर्दी के खिलाफ अगर मुख्यमंत्री कार्रवाई करता था, तब सारे दादा शहर छोड़कर कहीं चले जाते थे. लेकिन, 1970-71 के बाद राजनीति में दो बड़े हस्तक्षेप हुए. एक हस्तक्षेप इंदिरा गांधी ने किया कि उन्होंने विधानसभा और लोकसभा के चुनावों को अलग-अलग कर दिया और पैसे के बल पर चुनाव होने लगे. दूसर हस्तक्षेप आपातकाल में संजय गांधी ने किया कि उनके संगी-साथी उनके कार्यकर्ता बन गये. इस तरह से राजनीति में अपराधियों की पैठ बननी शुरू हुई, जो आज हर पार्टी में व्याप्त हो गयी है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

Next Article

Exit mobile version