II संतोष उत्सुक II
टिप्पणीकार
शादियों के मौसम में कई बार एक ही दिन आयोजित होनेवाली शादियों के आधा दर्जन कार्ड आ जाते हैं. सब जगह खाने की फुरसत और पेट में जगह भी नहीं होती और न ही शगुन देने की हिम्मत. अंततः अपने सांसारिक संबंधों के आधार पर चुनाव करना पड़ता है.
इस बार भी छह कार्ड आ धमके, तो पत्नी ने किसी भी विवाह में जाने के लिए साफ मना कर दिया. बोली कि घर पर रहकर राष्ट्रीय खाद्य खिचड़ी खायेंगे. इन शादियों में एक शादी मेरे पुराने गरीब, लेकिन अब अमीर परिचित के लड़के की थी. मेरा जाना जरूरी था, इसलिए जल्दी लौट आने की शर्त पर मुश्किल से वह मानी. मगर अब विवाह से लौटकर उनको काफी उम्दा लग रहा है, क्योंकि कुल मिलाकर फायदा ही हुआ. वह विवाह में न जाती, तो निश्चय ही पछताती. हमने एक थोड़ा पुराना, लेकिन बड़े आकार का उपहार शादी में दिया.
मगर उन्होंने जो दिया, वह कोई-कोई देता है. मेरी पत्नी को वापसी गिफ्ट के तौर पर अंगूठी मिली, वह भी सोने की. अंगूठी सोने की हो, तो टिपण्णी जरूरी हो जाती है. पत्नी ने कहा कि मुझे लगता है भाई साहिब ने कोई ऐसा व्यवसाय शुरू किया है, जिसमें काफी फायदा हो रहा है.
सुना है आजकल रिश्वत के बिना ही सारे काम हो रहे हैं.
इधर मैं हैरान हूं कि इतने मेहमानों को सोने की अंगूठी मिली. कहीं से थोक में बनवायी होंगी, पत्नी ने कहा. मैंने कहा कि आपने क्या लेना. वह बोली मैं कौन सा अंगूठी वापिस करने जा रही हूं. हो सकता है इनके पास पुश्तैनी धन निकला हो. मैं सुनार से पता करूंगी कि कितने की होगी. अगले दिन एक संबंधी दंपत्ति आये, तो बात-बात में उस अंगूठी की बात होने लगी.
उनकी पत्नी ने कहा कि देखो जी अंगूठी दी है. कहां से आया इनके पास इतना पैसा कि अंगूठियां बांटने लगे, उन्होंने ध्यान से अंगूठी को देखकर कहा. डिबिया पर सुनार का नाम होना चाहिए था. मैंने पूछा कि क्या आप एक और बनवाना चाहती हैं. उन्होंने कहा नहीं, मैं तो ऐसे ही बोल रही थी. वैसे मुझे अंगूठी का डिजाईन पसंद नहीं आया. वेट भी काफी कम होगा. मेरी पत्नी ने बीच में जोड़ा कि अंगूठी पहनने लायक नहीं है, क्योंकि ढीली है. मेहमान बोली, मेरी टाइट है खुलवानी पड़ेगी और लगता है इसमें लगा नग भी नकली है और ज्यादा बड़ा भी है.
मैंने कहा कि उन्हें चाहिए था कि आप लोगों से पहले पसंद करवा लेते. मेरी पत्नी ने अपना तकिया कलाम प्रयोग किया- आप मर्दों को तो पता ही नहीं चलता. क्या हमने उनको कहा कि सोने की अंगूठी दो. अब देने लायक थे, तभी दी ना. अच्छी डिजाईन की देते. किसी एक दुकान का कूपन दे देते.
मैंने मन में सोचा, उसमें यह सुविधा भी रहती, चाहे जेवर ले लें, चाहे नकद ले लें या चाहें पुराने जेवरों के बदले नये लेते समय समायोजित करवा लें. उन्हें इसका बिल भी देना चाहिए था. पत्नी बोली- यही सोच रहे हो न कि पैसा होते हुए भी लोगों को उपहार देना नहीं आता. मैं चुप ही रहा.