चोरी और सीनाजोरी!

जरा इस स्थिति के विरोधाभास की कल्पना कीजिए- पंजाब नेशनल बैंक से फर्जीवाड़े के जरिये हजारों करोड़ रुपये की निकासी के मामले में जिस व्यवसायी के कारोबारी ठिकानों पर छापे पड़ रहे हैं, उस व्यवसायी को लग रहा है कि मेरे साथ इंसाफ का बरताव नहीं हुआ. यही नहीं, वह सार्वजनिक तौर पर कह रहा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 21, 2018 5:46 AM
जरा इस स्थिति के विरोधाभास की कल्पना कीजिए- पंजाब नेशनल बैंक से फर्जीवाड़े के जरिये हजारों करोड़ रुपये की निकासी के मामले में जिस व्यवसायी के कारोबारी ठिकानों पर छापे पड़ रहे हैं, उस व्यवसायी को लग रहा है कि मेरे साथ इंसाफ का बरताव नहीं हुआ.
यही नहीं, वह सार्वजनिक तौर पर कह रहा है कि बैंक को धोखा उसने नहीं दिया, बल्कि धोखा तो उसके साथ हुआ है! पीएनबी से जुड़े बैकिंग घोटाले के मुख्य किरदार नीरव मोदी द्वारा बैंक को लिखी गयी चिट्ठी का एक संदेश यह भी है. हालांकि, इस चिट्ठी का पूरी तरह से सत्यापित होना शेष है, फिर भी, चूंकि नीरव मोदी के नजदीकी सूत्रों ने चिट्ठी के सही या गलत होने को लेकर कोई आपत्ति नहीं जतायी है, सो माना जा सकता है कि यह पत्र नीरव मोदी की ही है.
चिट्ठी बहाने से लिखी गयी है. इसमें बैंक से मनुहार की गयी है कि चालू खाते से रकम निकालने की अनुमति दी जाये, ताकि नीरव मोदी की कंपनी अपने कर्मचारियों को वेतन दे सके. इस निवेदन को दर्ज करने के बाद चिट्ठी आरोप की भाषा पर उतर आती है. उसमें बैंक पर दोषारोपण के स्वर में कहा गया है कि निकासी की रकम बढ़ा-चढ़ाकर बतायी जा रही है, देनदारी तो महज साढ़े छह हजार करोड़ की बनती है. साथ ही, चिट्ठी का स्वर फर्जीवाड़े की किसी बात से सिरे से इनकार का है.
उसमें कहा गया है कि बैंक ने हड़बड़ी में कदम उठाये और उसने मौका ही नहीं दिया कि बाजार से रकम जुटाकर लौटायी जा सके. मतलब, बैंक ने चूंकि देनदार को विकल्पहीन बनाया, सो वह रकम की वसूली की उम्मीद न करे. और, आखिर में चिट्ठी बैंक को ही गुनहगार ठहराने के अंदाज में कहती है कि उसने मामले को सार्वजनिक कर एक कारोबारी ब्रांड का नुकसान किया है. मतलब जवाबदेही नीरव मोदी की नहीं, बल्कि बैंक की है. मामले के सच-झूठ और दोषी-निर्दोष का फैसला तो न्याय प्रक्रिया से होगा, लेकिन चिट्ठी का संदेश अपराध की मानसिकता और उसके समाजशास्त्र के लिहाज से बहुत मानीखेज है.
कभी-कभार कोई व्यक्ति सजा में नरमी की उम्मीद से गुनाह कबूल कर लेता है. करनी पर पछतावे की सूरत में भी अपराधी अपने दोष स्वीकार करता है. बहुधा ऐसा भी होता है कि अपराधी एकदम नाउम्मीद हो जाये, उसे कहीं से कोई सहायता मिलती न दिखे और वह मजबूरी में अपराध स्वीकार करे. नीरव मोदी की कथित चिट्ठी में ऐसी कोई स्थिति नहीं है. उसमें स्वर चुनौती का है कि दोष उसका नहीं, बल्कि उसको दोषी ठहरानेवाली व्यवस्था का है.
हर स्थिति में बिना सजा के बच निकलने के भरोसे के बगैर ऐसी चिट्ठी लिखना मुमकिन नहीं है. इस बात पर सोच-विचार किया जाना चाहिए कि वे कौन-सी ऐसी ताकतें होती हैं, जिनके बूते किसी अपराधी के भीतर व्यवस्था से ऊपर और हमेशा बगैर दंडित हुए रहने का भरोसा पैदा होता है.

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