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भ्रष्ट बाबुओं को अब नहीं मिलेगा संरक्षण

अब संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के पदों पर आसीन नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा सर्वसम्मति से दिया गया यह फैसला कई […]

अब संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के पदों पर आसीन नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा सर्वसम्मति से दिया गया यह फैसला कई मायनों में महत्वपूर्ण है, जिसके दूरगामी असर की उम्मीद की जा सकती है.

इससे उम्मीद बंधी है कि उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों को भ्रष्टाचार के मामलों में सत्ता का अनुचित संरक्षण नहीं मिल सकेगा तथा जांच एजेंसियां उनके विरुद्ध त्वरित कार्रवाई कर सकेंगी. यह भी आशा की जा सकती है कि वरिष्ठ नौकरशाह अब अपने राजनीतिक आकाओं के भ्रष्टाचार में सहयोगी बनने में परहेज करेंगे. खंडपीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाब्लिशमेंट एक्ट (सीबीआइ का गठन इसी के तहत हुआ है) की धारा 6-ए को इस आधार पर निरस्त कर दिया है कि यह कानून के सामने बराबरी के संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित मौलिक अधिकार का अतिक्रमण करता है.

मुख्य न्यायाधीश लोढ़ा ने कहा कि किसी सरकारी अधिकारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार की जांच में उसके पद के स्तर को आधार नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार अधिकारों का दुरुपयोग है. दिसंबर, 1997 में भी सुप्रीम कोर्ट ने एकल निर्देश के प्रावधान को खारिज किया था, जिसमें वरिष्ठ अधिकारियों की जांच के लिए विशेष अनुमति की जरूरत थी. पर अगस्त, 1998 में केंद्र ने एक अध्यादेश के जरिये इस संरक्षण को फिर से बहाल कर दिया था. अदालत के हस्तक्षेप के बाद इसे हटाया गया, पर सितंबर, 2003 में वाजपेयी सरकार ने धारा 6-ए को इस कानून का हिस्सा बना कर इसे पुन: लागू कर दिया था. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कनिष्ठ और वरिष्ठ अधिकारियों के बीच का फर्क फिर से खत्म हुआ है.

हालांकि इस स्वागतयोग्य फैसले को लेकर उपजी इस चिंता का ठोस समाधान तलाशने की भी जरूरत है कि अब उच्च पदों पर आसीन ईमानदार अधिकारी भी जांच में फंसने के डर से नीतिगत फैसले लेने में हिचकेंगे. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सीबीआइ को पूरी स्वायत्तता दिये बिना निष्पक्ष एवं प्रभावी जांच पूरी तरह संभव नहीं है.

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